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________________ १४७ कारण तीर्थकर महाराज तो अनेक प्रकार से समझा समझा कर कह गये हैं कि भाइयों ! पैसे का लोभ मत करना, पैसे से नरक बहुत समीप भाजाता है । यहाँ भी ग्रन्थकर्ता सुख मिलने निमित्त धन एकत्र करने की प्रवृत्तिका परिणाम बताते है । यदि हम कुछ ओर अधिक बढ़ कर विचार करे तो ज्ञात हो कि कई बार बिना किसी खास उद्देश्य के ही धन एकत्र करने की प्रवृति होती है। सुख तो धन प्राप्त करनेवालों को मिल ही नहीं सकता, कारण कि वे तो प्रवृति में ही मन रहते हैं, लेकिन जिस के पिछे कोई संतति न हो, होने की आशा भी न हो, अपना खर्च नियमित हो, उससे हजारोगुनी लक्ष्मी प्राप्त हो गई हो वहां भी रात्रि-दिवस धन की धमाधम ही मची रहती है और वह यह भी विचार नहीं करता कि इस धन का कौन भोग करेगा ? इसप्रकार सम्पूर्ण जीवन भर पैसा-पैसा करते रहते हैं और जब मृत्यु कण्ठ पकड़ कर घर दबाती है तब उनकी ऊंग उड़ती है और कहने लगते हैं कि हमने बहुत भूल की है, बिना कारण ही प्रवृति की है। फिर वे बहुत पश्चात्ताप करते हैं लेकिन उस पश्चात्ताप से कुछ लाभ नहीं होता है । इसप्रकार बिना किसी कारण के ही एक मात्र धन के मोह से ही जो प्राणी उसके प्राप्त करने निमित्त पागल हो जाता है यह बात बहुत दुःख की और बहुत विचार करने योग्य है । धन ऐहिक और प्रामुष्मिक दुःख पैदा करनेवाला है. यानि द्विषामप्युपकारकाणि, सर्पोन्दुरादिष्वपि यैर्गतिश्च ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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