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________________ हो तो विशेष मान आत्मधर्म को ही देना चाहिये और जनयज्ञ करते समय पितृयज्ञ अथवा पुत्रयज्ञ का भोग भी करना पड़े तो भी सर्व धर्मानुसार वह इष्ट ही है। पुत्रपुत्री के शल्यरूप होने का दर्शन. आजीवितं जीव ! भवान्तरेऽपि वा, शल्यान्यपत्यानि न वेत्सि किं हृदि ? चलाचलैर्विविधार्तिदानतोऽ. निशं निहन्येत समाधिरात्मनः ॥ २ ॥ • "हे चेतन ! इस भव में और परभव में पुत्रपुत्री शल्यरूप हैं इसका तूं अपने मन में क्यों नहीं विचार करता ? वे थोड़ी अथवा विशेष प्रायुतक जीवित रह कर तुझे अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचा कर तेरी आत्मसमाधि का नाश करते हैं।" उपजाति. विवेचन:-बालबच्चे अनेक उपाधियों के कारण हैं और माबाप के लिये शल्यरूप हैं । जो चल अर्थात् कम आयुष्यवाले होते हैं वे माबाप को दुःखी बनाते हैं और जो यदि विधवा छोड़ कर चले जाते हैं तो माबाप के शोक की कोई हद ही नहीं रहती है । जो अचल अर्थात् अधिक आयुष्यवान होते हैं तो केलवणी, वेविशाल, लग्न आदि संसार के बढ़ानेवाले कार्यों से पिता को अनेक प्रकार के कष्ट देनेवाले होते हैं। उसमें भी पुत्र को इच्छानुसार आगे न बढ़ते देख कर पिता के हृदय में अत्यन्त दुःख होता है । अपितु यदि वे चलाचल अर्थात् चंचल हो तो कुकर्म कर के पिता के चित्त को शान्ति नहीं पाने
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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