________________
१२४ विलोक्य दूरस्थममेध्यमल्पं,
जुगुप्ससे मोटितनासिकस्त्वं । भृतेषु तेनैव विमूढ ! योषावपुःषु,
तत्किं कुरुषेऽभिलाषम् ॥ ३॥
" हे मूर्ख ! दूरी पर होनेवाली जरासी भी दुर्गंधित वस्तुओं को देखकर तूं नाक बंद कर के घृणा करता है; तो फिर उसीप्रकार दुर्गधी से भरे हुए स्त्रियों के शरीर की तूं क्यों अभिलाषा करता है ?"
इन्द्रप्रज ___ भावार्थ-मल्लीकुंवरी से विवाह करने की अभिलाषा से आये हुये छ राजाओं को प्रतिबोध कराने निमित्त उसने अपने स्वशरीर प्रमाण पूतली बनाई। फिर उसमें उत्तम उत्तम खाने के पदार्थ भरकर राजाओं के समक्ष उपस्थित की, लेकिन जब उसने बोलना प्रारम्भ किया तो चारों और दुर्गधी फैलने लगी, जिससे सब राजाओं को प्रतिबोध हुआ और उससे सब को भान हुआ कि शरीर में तो मांस, रुधिर आदि गटरखाना ही भरा हुआ है; केवल उन अपवित्र पदार्थों पर चमड़ी आच्छादित है जिससे वह सुन्दर दिखाई देता है । “ नगरखाड़ परे नित्य वहे, कफ मल, मूत्र भंडारों रे, तीम द्वारो रे; नर नव द्वादश नारीनां ये ।" इसीप्रकार प्रवाहबंध मलमूत्र चलते ही रहते है, और इसी लिये भर्तृहरिने भी कहा है कि-'मुहुनिन्धं रूपं कविजनविशेषैर्गुरुकृतं' त्रियों का रूप तो तद्दन निंद्य है, बारबार निंद्य है फिर भी विषय में मस्त हुए कल्पित ऐहिक सुख के आसक्त कवि उनके देह की भूरि भूरि प्रशंसा करके उनको आकाश