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व्यौपार सम्बन्धी आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर व्यौपार करने लगे। उनके सोलहवे वर्षमें पैर रखते ही उनका सम्बन्ध ( Betrothal ) सवरसावाले मोतीलालजीकी सुपुत्रीके साथ कर दिया गया किन्तु पाणि-ग्रहण अभी तक अवशेष था।
वैराग्य और दीक्षा. वहां बीजापुरनिवासी वाडीलालभाईकी दुकान थी जहां व्यौपार करनेकी इच्छासे बिजापुरनिवासी डायाभाईका उस अवसर पर आना हुआ । उनका धार्मिक अभ्यास अच्छा होनेसे वह रात्रिके समयपर अपने दैनिक कार्यसे निवृत हो वैराग्यकी सज्झाये गाया करते थे जिससे आस-पास के रहनेवाले वहां उनको सुननेके लिये एकत्रित होजाया करते थे । हुक्माजीको भी वहां जाकर वैराग्यसज्झायोंके सुननेका अवसर हाथ लगा। उनकी प्रवृति पहले ही उस ओर झूकी हुई होने से उनको उन्होने बड़े ध्यानसे सुना एवं मनन किया । जब उन्होंने धनाशालिभद्रककी सज्झााय सुनी और उसमें कहे धनाशालीभद्रककी ऋद्धि और त्यागपर मनन किया तो उनके मनमें चिर-स्थित वैराग्य-भावनाको उत्तेजना मिली
और उन्होंने धीरे २ संसारत्यागका दृढ निश्चय किया और अपना दीक्षा लेनेका विचार डाह्याभाईके सामने प्रकट किया। डाह्याभाईके कुटुम्बमें भी एक माता, एक भाई तथा दो पुत्रिये थीं। उनकी स्त्रीके स्वर्गवास हो जानेसे उनका संसार-बन्धन तो प्रायः हलका हो गया था; किन्तु उनके कुटुम्बीजन उनसे पुनः विवाह करने निमित्त बारंबार आग्रह करते रहते थे परन्तु वह पुरुष तो धर्मके रंगसे रञ्जित तथा संसारकी असास्तोसे पूर्णरूपसे परिचित था अतः उसने फिरसे संसार बन्धनमें न जकडा जा कर भागवती दीक्षा लेनेका निश्चय किया किन्तु उनकी माताका उनपर विशेष स्नेह था.इसलिये