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कराना बहुत कठिन है, कारण कि यह दृष्टान्त का विषय नहीं है, परन्तु अनुभवगम्य है । इस ग्रन्थ के अनेकों विषय अनुभव से ही जानने योग्य हैं, जिसके लिये हम निरुपाय है। उनका रस जिनको चखना हो उनको प्रथम उनके अधिकारी बनमा चाहिये, और तब तक तो उनका जो वर्णन अधूरे शब्दों में किया गया हो उसको ही ग्रहण करना चाहिये । साकर के स्वाद का किन शब्दों में वर्णन किया जावे ? चखनेवाला शिघ्र ही उसके स्वाद को जान जाता है । उसीप्रकार यह अंतरानंद अवर्णनीय, अनिर्वचनीय है । शास्त्रकार कह गये हैं कि:
समता बिन जे अनुसरे, प्राणी पुण्यकाम । छार उपर ते लीपणुं, जाँखर चित्राम ॥
इसप्रकार बिना समता के चाहे जितनी भी धार्मिक क्रियायें क्यों न करें किन्तु वे सब छार पर लीपने के सदृश हैं । जब तक भूमिका शुद्ध न की गई हो तब तक उसपर चाहें जितने भी चित्र क्यों न निकालो किन्तु वे सब व्यर्थ हैं । सब से प्रथम
आवश्यकता भूमिका को शुद्ध करने की है । समता भूमिका को शुद्ध करनेका सच्चा कार्य करती है । भूमिका शुद्ध करने की आवश्यक्ता के संबंध में सरल बनाने की आवश्यक्ता होती है । एक चित्रकार को चित्र चित्रना हो तो प्रथम वह वस्त्र को शुद्ध करेगा, एक पत्थर की सुन्दर मूर्ति बनानी हो तो पहले उस पत्थर को एकसा बनावेगा, एक प्रतिकृति लेनी हो तो फोटोग्रा. फर पहले दाग रहित लेट तैयार करेगा; उसीप्रकार हृदयमन्दिर में सुन्दर भावना मूर्ति स्थापित करनी हो तो प्रथम हृदयभूमिका को शुद्ध करनी चाहिये । यदि उसमें मलीन वासनायें होगी, यदि उसमें कषायरूप कचरा होगा, यदि उसमें राग-द्वेष का