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________________ १०९ कि विवेक नाश करना मोह का प्रथम कर्तव्य है। राग-द्वेष के ना होआने पर कोई कारण नहीं होता ऐसा नहीं है किन्तु प्रत्येक कार्य के करने में जो खराबी थी वह दूर होजाती है, सरलभाव बाजावे हैं और कर्तव्य वर्तव्य का ठीक २ भान होजावा है। अतः इतना तो अवश्य करना कि किसी भी पदार्थ पर प्रगाढ़ राग न रकले और किसी के साथ वैर भी न करें, कारण कि वस्तुस्वरूप को देख लेनेपर चाहे वह जीव हो या मजीव, कोई भी राग-देष के योग्य नहीं है, इस में भी अचेत पदार्थ पर राग-द्वेष करना तो अज्ञानता प्रगट करता है, कारण कि ऐसा करते समय अपना तथा उस वस्तु के स्वरूप का भान नहीं रहता । सब वस्तुमों में परिवर्तनपन होने से वस्तुत: कोई वस्तु इष्ट या अनिष्ट नहीं हो सकती तो फिर उन पर रागद्वेष करना व्यर्थ है ॥ ३४ ॥ यहां प्रथम समता अधिकार की समाप्ति होती है । सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार इस अधिकारमें है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में अनेक प्रयासद्वारा जिस को प्राप्त करने का उपदेश किया गया है उसकी ध्वनी का एन केन प्रकारेण समता प्राप्ति में समावेश होजाता है । ममत्वत्याग, चित्तदमन, कषायत्याग, शुभवृति आदि सब का साध्यविन्दु समता है और समता का परम साध्यबिन्दु अक्षयपद ( मोक्ष ) है; अतः सम्पूर्ण अन्य के बीज. रूप और साध्यसूचक इस अधिकार की जिस प्रकार कर्त्ताने * मुख्यता मानी है उसी प्रकार उसका पूरा ध्यान रखकर उसके विवेचन करने तथा उसको बार २ घुमा-फिरा कर एकसा बनाने का लक्ष्य रखा गया है। सामान्यतया मंगलाचरण कर के समता कितनी उत्कृष्ट वस्तु है यह ग्रन्थकर्ता अब हमको बतलाता है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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