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भी कार्य करना और भवदुःख मिटानेवाले की संगती करने की भभिलाषा हो उस समय वे अनेक प्रकार की अन्तराय दें उनको भी जैसे तैसे सहन करना नितान्त अनुचित है। संसार में तो अषाढीभूति, नंदिषेण और आर्द्रकुमार जैसे प्राणी भी होते हैं, जो संसार में फंसे हुए होने पर भी समय के उपस्थित होने पर संसार को मोक्षसाधन बतलाकर तथा उसको जीत कर अपने वशीभूत कर लेते हैं, और गजसुकुमाल, नेमनाथजी तथा स्कंदकाचार्य जैसे प्राणी भी होते हैं जो संसार से डर कर उसके सम्बन्ध में भी नहीं आते हैं । इन दोनों प्रकार के प्राणियों ने संसार का वास्तविक स्वरूप देख लिया है, इन दोनों में से कौनसा वर्ग आदरणीय है, यह विचारना अपने संयोग और मनोबल पर निर्भर है, परन्तु एक बात तो दोनों वर्गों में से सामान्यतया अनुकरणीय है और वह यह है कि संसार का सम्बन्ध त्याज्य है, संबन्धियों के निमित्त भवदुःख में भटकते रहना मोह का खेल तथा वास्तविक वस्तुस्वरूप का अज्ञान है । संयम प्राप्त करने की शक्ति न हो तथा इच्छा न होती हो उसको उसे प्राप्त करने की अभिलाषा रखनी चाहिये और " श्राद्धजीवन ” में भी सत्य व्यवहारयुत अनुकरणीय देशचारित्र को धारण करना चाहिये । भाश्रितों के माने हुए श्रेय के लिये नहीं अनन्त भव तक महादुःख देनेवाले व्यवहार का आचरण करना चाहिये । स्वार्थसाधन में रक्त रहने के उपदेश को पुष्ट करते हुए बिना कारण उसमें लिप्त नहीं रहने का यहां उपदेश किया गया है । यह समताप्राप्ति का चोथा साधन है ॥ ३३ ॥