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समझ में आ जायगी । और यह भी इससे समझ में भाजायगा कि हम मित्र किसे कहें ? और शत्रु किसे कहें ? इस जीव के सम्बन्ध में प्रत्येक जीव का शत्रु मित्र के रूप में मनन्तकाल में अनन्तवार होजाना संभव है । अतएव तेरे इन संबंधीयों में कोई पराये नहीं, फिर भी तूं उनको तेरे तथा पराये मानता है यह संसार का स्वरूप, तेरा खूद का स्वरूप और समान्यतया जीव का कर्म के साथ का सम्बन्ध आदि तूं नहीं जानता है, इसीलिये ही है। . ....
यह तेरा शरीर नाशवंत है । तेरे शरीर की आकृति भी नाशवंत है । वृद्धावस्था में यह बदल जायगी और अन्त में राख की देरी बन जायगी । इस शरीर का मोह दूसरी वस्तु पर के मोह के समान है । योवनकाल के निकलने के साथ ही साथ रूप भी विदा हो जाता है, शरीर जर्जरित हो जाता है, मुंह से लार टपकने लगती है, आखों के सामने अंधेरा छाजाता है, शरीर काँपने और धूजने लगता है, बाल पक कर श्वेत हो जाते हैं
और ललाट पर झुर्रियें पड़जाती हैं । ऐसे शरीर पर प्रेम करना उसका श्रृंगार करना, उसकी हरएक इच्छा को पूरी करना उसको कितने ही अभक्ष्य पदार्थों से बढ़ाना यह मूर्खता है, जड़ता है, वस्तुस्वरूप का अज्ञान है । जो वस्तु अपनी नहीं उसे अपनी मानकर उसके लिये क्लेश भोगना व्यर्थ है । शरीर कैसा नाशवंत है और इस पर ममत्व रखने से अन्त में कितना
खेद होता है, यह चोथे देहममत्व अधिकार में विस्तारपूर्वक प्रकाश-द्रव्यलोक-प्रथम सर्ग-श्लोक ९५ ) ऐसा वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र होता है और ऐसे अनन्त कालचक्र का एक पुद्गलपरावर्तन होता है। इसके विशेष स्वरूप को जानने के लिये दसवें अधिकार के सातवें श्लोक के विवेचन को देखिये ॥