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हैं। माध्यस्थ भावना में निर्गुणी पर समचित्त रखने का उपदेश किया गया था, यहाँ गुणवान पर ईर्षा रहित होकर प्रेम रखने का और गुणों पर राग रखने का उपदेश किया गया है। कहा है कि:
परगुणपरमाणून पर्वतीकृत्य नित्यं । निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ __ अणु जैसे दूसरे के गुणों को पर्वत समान समझ कर निरन्तर अपने हृदय में विकासित करनेवाले सन्त विरले ही होते हैं ' । इस प्रकार गुणग्राहीपन प्राप्त करने की अत्यन्त आवश्यकता है दूसरे के छोटे गुणों को भी बहुत बड़े समझ कर उनके प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये । इसके विरुद्ध यदि उन गुणों की उपेक्षा की जावे, अथवा इर्षा की जावे, अथवा निन्दा की जावे तो बहुत हानि होती है । मरे हुए, दुर्गधीवाले और हाडपिंजर ही जिसके शेष रह गये हैं ऐसे श्वान को देखकर भी घृणा न करते हुए कृष्ण वासुदेवने उसकी दंतपंक्ति का वर्णन किया है, इस गुणग्राहीपन के अपूर्व दृष्टांत का विचार करना आवश्यक है । साधारणतया ऐसे श्वान को देखने पर मुँह मोड़ कर तथा मुँह पर रुमाल लगा कर चले जानेकी ही प्रणाली देखी जाती है । फिर भी इसमें से भी शुभ ग्रहण करने की बुद्धि बहुत लाभदायक सिद्ध हुई है । हँस में दूध और पानी को अलग अलग करने की टेव होना कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु उसमें से दूध ही ग्रहण करने कि जो टेव है वह बड़ी बात है और अनुकरणीय है । यह सत्य है कि ऐसे गुण ग्रहण करनेवाले पुरुष बिरले ही होते हैं, परन्तु ऐसे
१ सोलहवे श्लोक तथा उसके नोट को देखिये ।