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________________ शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ " सम्पूर्ण संसार का कल्याण हो, सर्व प्राणी दूसरों के हित करने में तत्पर हों, सर्व दोष नष्ट हों, सर्व स्थान में सर्व प्राणी सुखी हों"। कैसे विशुद्ध एवं महान अन्तःकरण से ये भाव निकलते हैं ? यह बोलनेवाले को पवित्र करें इतना ही नहीं किन्तु सुननेवाले को भी पवित्र रहने का संकल्प करा देते हैं । उपर लिखी गाथा से जैसी ध्वनि पाक्षिक पर्वणि में निकलती है वैसी ही महान ध्वनि नित्य अनुष्ठान में-श्राद्ध, प्रतिक्रमणसूत्र में भी बताई गई है । देखिये: खाममि सव्वे जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मशं न केणइ ॥ __ अतः 'मैं सब जीवों को खमाता हूं और वे मुझे क्षमा करें ऐसी मेरी इच्छा है, मेरे सब जीवों के साथ मैत्री है, किसी के साथ वैरविरोध नहीं " । इस प्रकार त्याग तथा प्रहण दोनों प्रकार मैत्रीभावना उत्कृष्ट रीति से भाने की आवश्यक्ता है। Forbear & Forgive खमीये और खमावीये यह जैनशास्त्र की शुद्ध नीति है । इस में सामनेवाला व्यक्ति घमा करेगा या नहीं यह जानने की आवश्यक्ता नहीं है मान परित्याग कर के खमानेवाला तो सर्वथा आराधक है । क्षमा गुण को ग्रहण करते समय क्रोध का सर्वथा परित्याग करना पडता है और वैरविरोध तो नाममात्र को नही रखना पड़ता । नित्य अनुष्ठान
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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