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: षष्टिशतक प्रकरण
गुरु हुई। ते मूढ इसुं मानइं जु जिनाज्ञारक्त गुरु हुइ । अनेरा नही। मिथ्यात्वीइ जैन गुरु मानइं। इति भावः ॥ ३४॥ .
[मे..] जे सूधी वीतरागनी आज्ञा पालई, खरउं चारित्र पालई ते केतलां पापीनइ मस्तकि सूल समान हुई। जीयांनइ मस्तकि ते 5 सुगुरु सूल समान हुई, केतलांएक मूर्खनइ तेही गुरु करी मानीइ ॥३४॥
[सो.] ए वात दृढइ छ।।
[जि.] अथ मिथ्यात्वप्रबलता प्रकाशइ । हा हा गुरुअ अकजं सामी न हु अत्थि कस्स पुक्करिमो। कह जिणवयणं कह* सुगुरु सावया कह इअअकजं ॥३५॥ 10 [सो.] आहा गुरुऊ ए मोटुं अकार्य विरूऊ । स्वामी ठाकुर को नथी, जे शिक्षा दिइ । कस्स० कहइ आगलि पोकारि कीजइ । कह जिणवयण० किहां एहउं जिनवचन निष्कलंक अनइ किहां सुविहित सद्गुरु अनइ किहां उत्तम श्रावक । कह इअ० किहां ए
अकार्य । एहा भ्रष्टाचार अब्रह्मचारी गुरुनउं आराधिवउं । ए मोटउ 15वरासउ । इसिउ भाव । - [जि.] हा हा इति खेदे । गुरुअ अकजं मोटउं अकार्य। स्वामी न हु निश्चइं नथी । कस्स पुकरिमो किह आगलि पूकारां । ते किसुं अकार्य ? कह जिणवयण. किहां जिनवचन, किहां
सुगुरु, ते श्रावक किहां, जे सुगुरु श्रावक जिनवचनरहस्य जाणई । इसिउं २०अकार्य । जिम किसीइ अपूर्व वस्तु गमी हूंतीइ ठाकुर पाखइ किह
* सो. नी बीजी प्रतनुं १२ मुं पत्र नहीं होवाथी आ स्थानथी मांडीने ४०मी 'गाथाना बालावबोधनी प्रथम पंक्तिमा 'सिउं कीजइ' शब्दो सुधीनां पाठान्तर नोंधी शकायां नथी.