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पूर्वकालीन आचार्येना जीवनकार्य अने ग्रन्थरचनाओमांथी अनुमोदन मळ्युं अने परिणामे तेणे ' षष्टिशतक ' नी गाथा १०७- ८मां तथा १२९मां जिनवल्लभसूरिने बहुमानपूर्वक बिरदाव्या छे अने 'प्रभु जिनवल्लभ जेवा तो मात्र जिनवल्लभ छे' ( पहु जिणवल्लाहसरिस पुणो वि जिणवलहो चेव) एम कहीने एमना प्रत्येनो पोतानो अनन्य भक्तिभाव दर्शाव्यो छे. गाथा १२९ स्पष्ट रीते पुरवार करे छे के नेमिचन्द्र जिनवल्लभसूरिने प्रत्यक्ष मळ्या नहोता, पण जिनवल्लभना ग्रन्थोए ज नेमिचन्द्रना हृदय उपर ऊंडी असर करी हती. * विक्रमना तेरमा शतकनी उत्तरकालीन अपभ्रंशमां नेमिचन्द्रे रचेलं ' जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन ' नामे ३५ कडीनुं काव्य पण एज वस्तु पुरवार करे छे (जुओ परिशिष्ट १ ). नेमिचन्द्रनी बीजी एक रचना पण उपलब्ध छे, अने ते नव गाथाओनुं प्राकृत ' पार्श्वनाथ स्तोत्र' आ ग्रन्थना परिशिष्ट २ मां ते पहेली ज धार प्रकाशित थाय छे.
एक पूर्वकालीन प्रकरणग्रन्थ, धर्मदास गणिकृत प्राकृत ' उपदेशमाला 'नो + मानभेर उल्लेख नेमिचन्द्रे ' षष्टिशतक' नी ९६ मी गाथामां
* — उपमितिभव प्रपंच कथा ' ( सं. ९६२ ) ना कर्ता सिद्धर्षिए पोताथी थोडा ज समय पूर्वे थई गयेला हरिभद्रसूरिनो उल्लेख पोताना ' धर्मबोधकर गुरु' तरीके कर्यो छे अने तेमणे 'ललितविस्तरा' वृत्ति अनागतनो विचार करीने पोताने माटे ज निर्मी होवानुं बहुमानपूर्वक नोध्युं छे. एक पूर्वकालीन विद्वाने पोतानी आध्यात्मिक दृष्टि बराबर रुचे एवी कृति लखी ए माटे सिद्धर्षिना ए प्रशंसाना उद्गारो छे. नेमिचन्द्रनो जिनवल्लभसूरि साथेनो आध्यात्मिक संबंध लगभग ए प्रकारनो ज गणी
शकाय.
+ जैन अनुश्रुति प्रमाणे, धर्मदासगणि महावीरना शिष्य हता. परन्तु ' उपदेशमाला 'नी भाषा तो उत्तरकालीन जैन महाराष्ट्री छे ए जोतां आ अनुश्रुतिने केटले अंशे प्रमाणभूत गणवी ए ग्रश्न छे. विक्रमना दशमा सैका करतां तो ए प्राचीनतर छेज, केम के ए समये थयेला सिद्धर्षिए ' उपदेशमाला' उपर टीका रचेली छे.