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परिशिष्ट २ नमिचन्द्र भंडारी-विरचित
पार्श्वनाथ स्तोत्र भवभयवणगणदणं दरिदोगारिदुरियनिद्दलणं । सिद्धिपुरकयनिवासं सया वि सुमरामि जिणपासं ॥ १ ॥ इह संसारअरन्ने भीमे पडियाण मुद्धजंतूणं । तुज्झ विणा जयबंधव सरणं न हु को वि दुहियाणं ॥२॥ तं माया तं च पिया तं सामी बंधवो गुरू देवो । तं चिय परमनिहाणं किं बहुणा मज्झ तं इक्को ॥ ३ ॥ न सरामि देवयाओ नो विज्जाओ न मंतमूलीओ। जं सामिय तं पत्तो अउव्वविप्फुरियमाहप्पो ॥ ४ ॥ तुह आणाभंगाओ दुहाई बहुयाई जाइं जायाइं । ताई तुम चिय निहणसु अन्नो कइया वि न समत्थो ॥ ५॥ जइ वि पराभवठाणं जइ दीणो दुत्थिओ अहं देव । तह वि तुह पय सरंतो मन्नामि न को वि अप्प समो ॥ ६ ॥ उल्लसियाई सुहाई दुहाई खीणाई ताण निब्भंतं । जाण मणम्मि विवसिओ विहिणा तं पासजिणनाह ॥ ७ ॥ ता हरसु मज्झ चिंता संतावं माणसम्मि संकंतं । विहिजिणसुहगुरुजोगं सिवसुहयं देहि अणवरयं ॥ ८ ॥ इय पासनाहदेवं सरियं सज्जणसुएण अप्पहियं । जो तं सरइ तिसंझं सो पावइ वंछियसुहाइं ॥९॥
भ० नेमिचन्द्रमुश्रावककृतं श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रं ॥
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