________________
त्रण बालावबोध सहित
१४५
[मे.] सघलीइ वस्तु पृथ्वीमाहि सुवर्णरत्नादिक वस्तुनउ विस्तार सोहिलउ । पणि नित्य सर्वदा सन्मार्गनइ विषइ निरत, खरा धर्मना प्ररूपक तेहनउ मेलावउ अति दुर्लभ । जयवीअरायमाहि 'सुहगुरुजोगो तव्ययणसेवणा' एह जि वस्तुनी प्रार्थना मागी ॥ १४ ॥
[सो.] केतलाइ ' आ माहरउ देव, आ माहरउ गुरु । ए टाली 5 बीजा गुणवंतइ कांई नही । हुं एह जि मानउं ।' इसिउं अभिमान वहइ । तेह आश्री कहइ छइ ।
[जि.] अथ देवां गुरांहूई सगर्वपणइ करी कर्मबहुलता बोला। अहिमाणविसोवसमत्थयं च थुव्वंति देवगुरुणो अ। तेहिं पि जओ माणो ही ही तं पुव्वदुचरिअं ॥१४४॥०
[सो.] अहिमाण. अहंकाररूपिआ विसना विकार उपशमाववा देवगुरु कहीइ । देवगुरु सेवतां अहंकारादिक विकार जाई । तेहिं पि० तेहे जि देवगुरे करी केतलांहूई मान अहंकार आवइ । ही ही० आहा ! ते पूर्वदुश्चरित पाछिला भवना पाप तेहनूं प्रमाण, जं गुणागुण कांई जोतउ नथी । दृष्टिरागिइं वाहिउ — आपणाइ जि देवगुरु:5 रूडा' इसिइं गर्विइं गर्यु हीडइ छइ ॥ १४४॥ - [जि.] लोक परमार्थवृत्तिइं च वली बाह्यवृत्तिइं पुण अभिमान अहंकार तेहनइ वशि देवां गुरुईहूई वर्णवइं। जउ देवगुरुई अहंकारी छइं इसिइं स्तवइं। स्तवितां छतउई गुण, अछतई गुण वर्णवइ । पुण तेहां देवांगुरांहूई जउ माण अहंकार हूउ साचउ, तउ20 तेहां देवगुरुनां पूर्वकृत दुश्चरित जाणिवउं ॥ १४४ ॥
१'आ माहरउ देव ' सो.नी बीजी प्रतमां नथी. २ आ गाथा जि.मां नथी, पण ते उपरनो बालावबोध छे. ३ मे. जाओ. ४ °दुच्चिरिअं. ५ अभिमान अहंकार. ६ केतलाई.
१९