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“पष्टिशतकं प्रकरण
रागद्वेष मूकी मध्यस्थपणइ समय सिद्धांतनी दृष्टिं सम्यग् प्रकारि गुरु परीषी लेवउ, पणि लोकनउ प्रवाह कलकल 'ए माहरउ, ए ताहरउ' एवहउ हलबोल मूकीनइ ॥ १४० ॥
- [सो.] ईणइं लोकप्रवाहिइं हिवडां जाणइ क्षुभई छई। ए वात 5 कहइ छ।।
[जि.] अथ पूर्वोक्त लोकप्रवाहनउं स्वरूप कहइ । संपई दसमच्छेरयनामायरिएहि जणिअजणमोहा । सुयधम्माओं निउण विचलंति बहुजणपवाहाओ॥१४१॥
[सो.] संपइ० हिवडां अस्संजयाण पूआ इसिउं दसमुं अछेरुं उ०प्रवर्तइ छइ । ईणं करी गुणरहित नामिइं आचार्य घणा थिया । तीणइं करी जणिअजण लोक रहइं मोह कहीइ भ्रम वरांसउ पडिउ । न जाणीइ केहउ गुरु । इसिइं छतई जे निपुण डाहा चतुर तेहइ घणा लोकना प्रवाहमाहि पडिआ हुंता साचा धर्मतउ चूकई चलई छई, साचा गुरुनइ अणलहिवई ॥ १४१॥ 15 [जि.] संप्रति हिवडां दसमइ आश्चर्यि ऊपना नामायरिएहिं नामधारक आचार्य तेहे जनित ऊपजाविउ जन अज्ञाततत्त्व लोक तेहना सरीषउ मोह अज्ञानपणउं जेहां निपुणांहूई छई ते जनितजनमोह । एवहा हूंता निउण वि निपुणई ज्ञाततत्त्वई सुभधर्म हूंता चालई । किसा प्रमाणइतउ ? बहुजणपवाहाओ बहु घणा जण लोक तेहना १०प्रवाहइतउ । एक नामधार आचार्य मोह ऊपजावइ । लोकप्रवाह पुण शुभधर्म हूंतउ डाहाई भोलवइ । तिणि कारणि लोकप्रवाह मेल्हिवउ ॥ १४१॥
१ जि. मे. संपय. २ तह धम्माओ. ३ जि. नियण. ४ वर्तइ. ५ परिउ.