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बालावबोधना कर्ताओ पोताना विषयना जाणकार विद्वानो हता; ए कारणे एमना अनुवादो शिष्ट होय छे अने शब्दोनी पसंदगी मूळने अनुसरती तेम ज समुचित अर्थनी वाहक होय छे. एमनो प्रथम उद्देश साहित्यिक आनंद आपवानो नहि, पण वाचकने मूळ वस्तुनुं ज्ञान कराववानो छे, छतां तरुणप्रभसूरिकृत 'षडावश्यक बालावबोध' (सं. १४११) जेवी केटलीक रचनाओनां कथानकोमा वर्णकशैलीना अलंकारप्रचुर गद्यना आगमननी अंधाणीओ वरताय छे खरी. परन्तु मूळ ग्रन्थने सादी भाषामां समजाववानो 'बालावबोध 'ना साहित्यप्रकारनो प्रथम उद्देश छे ते तो भाग्ये ज कोई बालावबोधमां असफल रहेलो जणांशे. जूना गुजराती साहित्यमां बालावबोध पांच-पचीस नहि पण कुडीबंध छ; अने संस्कृत-प्राकृत भाषाओमां संघरायेला शास्त्रज्ञानने लोकभाषाओ द्वारा बहुजनसमाज समक्ष सरल स्वरूपमा मूकवानी जे प्रवृत्ति मध्यकाळमां समस्त भारतवर्षमा नजरे पडे छे ए ज आ बालावबोधोनी बहोळी अनुवादप्रवृत्तिमां पण एक चालक बळरूपे छे एम कहेवामां भाग्ये ज अतिशयोक्ति गणाशे. - एक ज मूल ग्रन्थना एक करतां वधु बालावबोधो जेमां साथोसाथ प्रसिद्ध थता होय एवं, मने ख्याल छे त्यां सुधी, आ पहेलु ज प्रकाशन छे. एक ज मूल षष्टिशतक प्रकरण 'नो त्रण जुदा जुदा विद्वानोए करेलो अनुवाद एमां एक साथे जोई शकाशे. ए त्रणे विद्वानो लगभग एक ज समयमां थयेला छे; सोमसुन्दरसूरिनो बालावबोध विक्रमना पंदरमा शतकना अंतमां रचायेल छे, ज्यारे जिनसागरसूरि अने मेरुसुन्दर उपाध्यायना बालावबोधो विक्रमना सोळमा शतकना प्रारंभमां रचाया छे. रचना उपरथी जणाय छे के त्रणेनो आशय मूळनी अनुवादरूप समजूती आपवानो छे; जो के कोई कोई स्थळे त्रणेए थोडोक विस्तार करी दीधो छे. मूळ प्राकृत गाथा तथा ते उपरना त्रणे य बालावबोधो एक साथे छापेला.