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त्रण वालावबोध सहित .
[जि.] इत्थ संसारमाहे गुरुनइ विषइ कस्सुवार कही ऊपर अम्हाण अम्हहूई राग अनइ रोषई नथी । एक गुरु ऊपरि राग द्वेष इसुं नहीं । किं तु अम्हे धर्मनइ अर्थि जिनाज्ञारत जिनाज्ञाप्रतिपालकई ज गुरु सेवां । सेष थाकता अनेरा जिनाज्ञा थोडी पालइ ते गुरु वोसिरां मेल्हां ॥ १०४ ॥
[मे.] कवि कहइ । अम्हनइ कुणही गुरु ऊपरि सगरोस नथी इहां गुरुनइ विषइ । जे जिननी आज्ञानइ विषइ तत्पर तेहइ जि धर्मनइ काजि गुरु । सेष थाकता वोसिरउं छांडउं ॥ १०४ ॥
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[सो.] वली एह जि वात कहइ छ।। .
[जि.] मेल्हिवानउं कारण कहइ । नो अप्पणा पराया गुरुणो कइया वि हुंति सड्ढाणं । जिणवयणरयणमंडणमंडियं सव्वे विते सुगुरु॥१०५।।
[सो.] नो अप्पणा० श्रावकनइ ‘आ आपणा गुरु, आ पिराया गुरु' ए वात कहीइं नथी । ए वात अजाण मिथ्यात्वीनी 'आ माहरउ गुरु ।' जेह भणी मातंग म्लेच्छ ठठार चमार वेश्यादिक-15 इनइ एकेकउ गुरु' छइ । ते अजाणपणई 'माहरउ ए गुरु' इम कहइं, पणि मोक्षार्थी श्रावक इम न कहई । तेहनइ जिणक्यण. जिनवचन सिद्धांत तेहरूपिउं रत्नमंडन रत्नमय आभरण तीणं करी जे मंडित छई', जे वीतरागनी आज्ञा सिद्धांत साचउ जाणई मानई प्रकासई, आपणी शक्ति अणगोपवता करई आराधइं ते सघलाइ०० सुगुरु कहींइ । ते गुरु भणी आराधिवा ॥ १०५॥
१ जि. जिणवयणमंडण. २ पराया. ३ नत्थी. ४ कुलगुरु. ५ अजाणई. ६ छई जि. ७ जि.