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व्यवहारविधिप्रकरणम्
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व्यवहारो द्विधा प्रोक्तः सन्देहतत्त्वयोगतः।
आद्यः सत्सङ्गतो ज्ञेयो लोसृदर्शनतः परः॥३॥ व्यवहार दो प्रकार का कहा गया है - सन्देहात्मक और तत्त्वात्मक। प्रथम (सन्देहात्मक) व्यवहार सत्सङ्गति से ज्ञेय है और दूसरा तत्त्वात्मक व्यवहार चिह्न से ज्ञेय है।
(वृ०) लोप्नं लिङ्गं तत्र सन्देहाभियोगः सत्सङ्गाद्भवति तत्त्वाभियोगस्तु चिह्नदर्शनात् स च विधिनिषेधाभ्यां द्विविधः यथा मदीयक्षेत्रमपहरति। तथायं मत्तो रजतान् गृहीत्वा न ददातीति प्रतिषेधात्मकः।
चुराई हुई वस्तु का चिह्न होने पर सन्देहात्मक अभियोग और उसका साहचर्य होने पर तत्त्वात्मक अभियोग होता है। चिह्नदर्शन होने से वह विधि और निषेधपूर्वक दो प्रकार का होता है, जैसे मेरे खेत का अपहरण करता है (यह विधेयात्मक) और यह मेरे रुपयों को लेकर नहीं देता है यह प्रतिषेधात्मक है।
यो न्यायं नेच्छते कर्तुमन्यायं च करोति यः।
व्यवहारविलोपी च श्वभ्रं याति न संशयः॥४॥ जो न्याय करने की इच्छा नहीं करता और अन्याय करता है वह व्यवहार को नष्ट करने वाला मनुष्य नरक में जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।
(वृ०) अत्र न्यायं कर्तुं नेच्छति अन्यायं च कर्तुं ईहते इति प्राविवाकापेक्षयापि विधिनिषेधात्मकत्वं स पुनरष्टादशविधस्तथाहि।
न्याय करने की इच्छा नहीं करता है और अन्याय करने की इच्छा करता है। यह विधि-निषेधात्मक व्यवहार अधिकारी की अपेक्षा से अठारह प्रकार का होता
ऋणादानं च सम्भूयोत्थानं देयविधिस्तथा। दायः सीमाविवादश्च वेतनादानमेव च॥५॥ क्रयेतरानुसन्तापो विवादः स्वामिभृत्ययोः। निक्षेपः प्राप्तवित्तस्य विक्रयः स्वामिनं विना॥६॥ वाक्पारुष्यं च समयव्यतिक्रान्तिः स्त्रियाग्रहः। द्यूतं स्तैन्यं साहसं च दण्डपारुष्यमेव च॥७॥ स्त्रीपुंधर्मविभागश्चेत्येते भेदाः प्रकीर्तिताः।
व्यावहारिकमार्गेऽस्मिन्नष्टाग्रदशसंख्यया ॥८॥ शंसयः भ १, प १, प २॥
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