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आमुख
भारतीय परम्परा में अनेक ऐसे आचार्य हुए हैं जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा एवं ज्ञान के द्वारा अनेक विषय क्षेत्रों को समृद्ध बनाया है। ऐसे ही आचार्यों की परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र का नाम अग्रगण्य है। बारहवीं शताब्दी में गुजरात में आविर्भूत हेमचन्द्र, जैन आचार्य थे लेकिन उनका काम किसी मत की परिधि में सीमित नहीं रहा। उन्होंने उस काल में प्रचलित विभिन्न शास्त्रों को अपने लेखन से समृद्ध किया। उनके लेखन की महती विशेषता यह है कि उन्होंने जो शास्त्र-ग्रन्थ लिखे उन पर स्वयं वृत्ति की रचना भी की। यह वैशिष्ट्य संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य में अद्वितीय है। व्याकरण के क्षेत्र में सिद्धहेमशब्दानुशासन अष्टाध्यायो की शैली में लिखा गया अति प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत का व्याकरण एवं आठवें अध्याय में प्राकृत का व्याकरण निबद्ध हैं। इस ग्रन्थ पर लघुवृत्ति और वृहद्वृत्ति की रचना भी हेमचन्द्राचार्य ने की है। इसी तरह कोश का निर्माण करने के समय अभिधानचिन्तामणि की वृत्ति भी आचार्य ने स्वयं लिखी है। काव्यशास्त्र एवं छन्दशास्त्र के क्षेत्र में काव्यानुशासन और छन्दोऽनुशासन की रचना करते हुए भी वह वृत्ति लिखना नहीं भूले। दर्शनशास्त्र और योगशास्त्र में उनके दो ग्रन्थ प्रमाणमीमांसा एवं योगशास्त्र सुप्रसिद्ध हैं। इसी क्रम में राजनीतिशास्त्र पर लघ्वर्हन्नीति नामक उनका ग्रन्थ वृत्ति के साथ उपलब्ध होता है। शास्त्र लेखन में वैविध्य उनके ज्ञान एवं मौलिक चिन्तन का साक्षात् प्रमाण है।
ऐसा नहीं है कि हेमचन्द्राचार्य केवल शास्त्रीय ग्रन्थों की रचना में प्रवृत्त हुए अपितु सृजनात्मक साहित्य में भी उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं पर उनका जो समान अधिकार था वह दोनों ही भाषाओं में द्याश्रयकाव्य की रचना के द्वारा उन्होंने समालोचकों के समक्ष उपस्थापित किया। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित एवं स्थविरावलिचरित उनकी अन्य साहित्यिक कृतियाँ हैं। उनके चार स्तोत्र ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र के बहुआयामी व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना, उनकी कृति के महत्त्व का मूल्यांकन करने के लिए आवश्यक है।