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दण्डनीतिप्रकरणम्
४ मंडलीबन्धे ५ कारागारे ६ छविच्छेदे य ७ अत्रच्छविच्छेद इति वधाधुपलक्षणं।
जैसा कि स्थानाङ्गसूत्र में प्ररूपित है - दण्डनीति सात प्रकार की कही गयी है। वे (इस प्रकार) हैं - १. हक्कार, २. मक्कार, ३. धिक्कार, ४. निन्दा, ५. मण्डल बन्धन, ६. कारागार और ७. अङ्ग-भङ्ग। छविच्छेद से अभिप्राय वधादि है।
एताः सत्त्वेऽभियोगस्यासत्त्वे चापि महीभुजा।
प्रयुज्यन्ते प्रजास्थित्यै यथादोषं दुरात्मसु॥५॥ ये (दण्डनीतियाँ आरोपी के विरुद्ध) अभियोग (दोषारोपण) होने पर और न होने पर भी राजा द्वारा प्रजा की रक्षा हेतु दुष्टों के अपराध के अनुसार प्रयोग की जाती हैं।
(वृ०) अतएव प्रत्यर्थ्यभियोगोत्थाः एत्ता वक्ष्यमाणव्यवहाराधिकारे यथावसरं वर्णनीया भविष्यन्त्यत्र तु तदभावेऽपि याः स्वयं नृपेण प्रजादुःखापकरणार्थं प्रयुज्यन्ते ता एवोपक्रम्यन्ते।
इसलिए वादियों द्वारा आनीत वाद के समाधान हेतु प्रयोग में लायी जाने वाली दण्डनीति आगे वर्णन किये जाने वाले व्यवहार अधिकार में अवसरानुकूल वर्णित की जाएगी। यहाँ तो (वादियों द्वारा वाद के) न प्रस्तुत किये जाने पर भी प्रजा के दुःख को दूर करने हेतु स्वयं राजा द्वारा जिन दण्डनीतियों का प्रयोग किया जाता है उनका ही वर्णन किया जाता है -
तत्राद्यं दण्डनीतीनां त्रिकं प्राक् प्रथमार्हतः।
युग्मिनां कालदोषेण कलौ कुलकरैः कृतम्॥६॥ उन (सात दण्डनीतियों) में से पहली तीन (हक्कार, मक्कार, धिक्कार) प्रथम तीर्थङ्कर (ऋषभदेव) के पूर्व युगलियों के (उत्तम) काल के दोष की गणना में कुलकरों द्वारा अपनाई जाती थीं।
पश्चात् प्रवृत्ता अपरा भरतेन कृता अपि।
ततो निश्चीयते दण्डनीतिः कालानुसारिणी॥७॥ . उसके पश्चात् अपनाई गई (चक्रवर्ती) भरत द्वारा प्रवर्तित अन्य (चार से) भी समयानुसार दण्डनीति निश्चित की जाती है।
(वृ०) अत एव द्रव्यदण्ड, ज्ञातिदण्ड, ताडनादि दण्डोऽपि सह्यते। यथा दोषं यथा कालं प्रयुक्ताः सर्वाअपि साध्यसिद्धिदा एवेति।
प्रयुज्य
ते भ १, भ २, प १, प २॥