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भूपालादिगुणवर्णनम्
प्रजाधने नृपस्वे च न कार्या कर्हिचित्स्पृहा ।
एवं शिक्षा सदा देया सर्वकर्माधिकारिषु ॥ ९६ ॥
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- इति सामान्यतः सर्वेषांकर्माधिकारिणांतत्कर्मबोधिकाशिक्षा ।।
प्रजा को पीड़ित नहीं करना चाहिए, स्वयं राजा का कार्य नहीं बिगाड़ना चाहिए, न्यायपूर्वक धन एकत्र करना चाहिए और सर्वोत्कृष्ट सत्य का परित्याग नहीं करना चाहिए। प्रजा के धन और राजा के धन की कभी आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, इस प्रकार की शिक्षा राज्याधिकारियों को सदा दी जानी चाहिए। मध्वाम्लकटुतिक्तेषु वाग्भेदेषु विचक्षणाः । औत्पत्तिक्यादिधीयुक्ताः शीघ्रकार्यविधायिनः ॥९७॥
विनीताः स्वामिभक्ताश्च स्वामिकार्यैकतत्पराः । सर्वभाषासु दक्षाश्च प्रायेण स्युर्द्विजाश्चराः ॥ ९८ ॥
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- इतिदूतलक्षणानि ॥
मधुर, आम्ल, कड़वा और तिक्त वाणी में अन्तर करने में कुशल, औत्पत्तिकी आदि बुद्धि से युक्त, कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने वाले, विनीत, स्वामिभक्त, स्वामी के कार्य में अत्यन्त तत्पर और सभी भाषाओं में दक्ष प्रायः ब्राह्मण गुप्तचर हों ।
स्वस्वामिना वृथोत्साहो न देयो रभसात्कदा । परप्रसादो नापेक्ष्यः कार्यं सत्यनिवेदनम् ॥ ९९ ॥ स्वामिप्रतापसंवृद्धिः कार्या सर्वत्र च त्वया । ज्ञात्वान्यभावं तद्वाच्यं यत्स्यात्स्वाम्यर्थसाधकम् ॥१००॥
- इति दूतशिक्षा ॥
कभी भी उतावलेपन से स्वामी को व्यर्थ का उत्साह न दिलाये, दूसरे की कृपा की आकांक्षा नहीं करे, सत्य का ही निवेदन करे । गुप्तचर द्वारा सर्वत्र स्वामी के पराक्रम की वृद्धि करनी चाहिए और दूसरे के मन्तव्य को जानकर वह बोलना चाहिए जिससे स्वामी का प्रयोजन सिद्ध हो।
तेषां विज्ञापनं सम्यक् श्रुत्वा मन्त्रियुता नृपः । हिताहितं विविच्याथ कुर्याद्राष्टहितं भृशम् ॥१०१॥
राजा मन्त्री सहित उनकी सूचना को भली प्रकार सुनकर हित अनहित का विवेचन करने के पश्चात् राष्ट्र के लिए अत्यन्त हितकारी कार्य करे ।
इत्याचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचिते चौलुक्यवंशभूषणकुमार