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लघ्वर्हन्नीति
दुष्ट को दण्ड, सज्जन की पूजा, न्यायपूर्वक कोश की सम्यक् रूप से वृद्धि, पक्षपात का अभाव और शत्रु से राष्ट्र की रक्षा - राजाओं के ये ही पाँच यज्ञ कहे गये हैं।
अङ्गरक्षान्सौविदल्लान् मन्त्रिणो दण्डनायकान्।
सूपकारान् द्वारपालान् कुर्याद्वंशक्रमागतान्॥४५॥
अङ्गरक्षकों, कञ्चकियों, मन्त्रियों, सेनापतियों, रसोइयों और द्वारपालों की नियुक्ति वंशानुगत रूप से आये हुए लोगों की करनी चाहिए।
वर्जयन्मृगयां द्यूतं वेश्यां दासीं परस्त्रियः।
सुरां वचनपारुष्यं तथा चैवार्थदूषणम्॥४६॥ राजा द्वारा शिकार, द्यूत, वेश्या, दासी, परस्त्री, मदिरा, वाणी की कठोरता तथा धन के अपव्यय का त्याग करना चाहिये।
वृथार्थदण्डपारुष्यं वाद्यं गीतं तथाधिकम्। नृत्यावलोकनं भूयो दिवा निद्रां च सततम्॥४७॥ परोक्षनिन्दा व्यसनान्येतानि परिवर्जयेः।
न्यायान्यायपरामर्श नीरक्षीरविवेचने॥४८॥ निष्प्रयोजन दण्ड, कठोरता, अत्यधिक वाद्य और गीत, बार-बार नृत्य देखना, निरन्तर दिन के समय शयन और पीठ पीछे निन्दा - इन दुर्व्यसनों का परित्याग करो। न्याय और अन्याय के विवेचन में (हंस के समान) नीर-क्षीर विवेक वाला होना चाहिए।
न पक्षपातो नोद्वेगस्त्वया कार्यः कदाचन। स्त्रीणां श्रीणां विपक्षाणां नीचानां रसितागसाम्॥४९॥ मूर्खाणां चैव लघ्वानां' मा विश्वासं कृथाः क्वचित्। देवगुर्वाराधने च स्वप्रजानां च पालने॥५०॥ पोष्यपोषणकार्ये च मा कुर्यात्प्रतिहस्तकान्। कार्यः सम्पदि नोत्सेको धैर्यछेदो च चापदि॥५१॥ एतद्वयं निगदितं बुधैरुत्तमलक्षणम्। शास्त्रैर्दानैः प्रपाभोज्यैः प्रासादैश्च जलाशयैः॥५२॥
१. २.
परिवर्जयेत् प १॥ लुध्वानां भ १, प २॥ प्रशादैश्च भ १, भ २, प १, प्रसादै० प२॥