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प्रायश्चित्तम्
सप्ताहं च ततः स्नानं पञ्चगव्येन चाचरेत् । तत्रापि गव्यदुग्धेन प्राणाधारो न चान्यथा ॥४५॥ पञ्चाहं पञ्चगव्यं च त्रिस्त्रिचलुभिराचमेद् । विधाय मुण्डनं तस्मात् तीर्थोदकसमुच्चयैः ॥४६॥ अष्टोत्तरशतेनैव घटानां स्नपयेच्च तम् । देवस्नानोदकेनापि गुरुपादोदकेन च॥४७॥ तथा शुद्धो देवगुरून्नमस्कुर्यात्समाहितः । ततः साध्वर्चनं सङ्घार्चनं कुर्याद्विशुद्धधीः ॥४८॥ दानं दद्यात्ततः कुर्यात्तीर्थयात्रात्रयं सुधीः । एवं विशोधनारूपं प्रायश्चित्तमुदीर्यते ॥ ४९ ॥
बैल तथा गाय को साथ जोड़कर (उनसे) हल कर्षण करावे तो (सात दिन तक) आग सुलगाकर ताप लेना तथा सात दिन हल जोतना चाहिये। चौदह दिन मात्र एक-एक मुट्ठी यव (अन्न- विशेष) का भोजन करना चाहिये । तत्पश्चात् सिर और दाढ़ी का मुण्डन भी कराना चाहिये । इसके बाद एक सप्ताह पञ्चगव्य-गाय से प्राप्त होने वाले पाँच पदार्थ दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर से स्नान करना चाहिये और उस (सप्ताह में ) मात्र गाय का दूध ही जीवन का आधार होना चाहिये, कोई अन्य पदार्थ नहीं अर्थात् इन सात दिनों तक केवल गाय का दूध ही ग्रहण करना चाहिये। आगे पाँच दिन तक तीन अञ्जलि पञ्चगव्य से आचमन करना चाहिये, सिर का मुण्डन कराकर, पुनः तीर्थ के जल से एक सौ आठ घड़ों से तथा जिस जल से देवमूर्ति का स्नान कराया गया हो और गुरु के चरणों को प्रक्षालित किया गया हो उस जल से उसे स्नान कराना चाहिये । शुद्ध होकर, दत्तचित्त होकर देव और गुरु को नमस्कार करना चाहिये । इसके पश्चात् निर्मल बुद्धि से साधु और सङ्घ की पूजा करनी चाहिये, दान देना चाहिये, तीन तीर्थयात्रायें करनी चाहिये। इसप्रकार अशुद्धि के विशोधन रूप प्रायश्चित्त का वर्णन किया जाता है।
इत्येवं वर्णिता त्वत्र विशुद्धिः सर्वदेहिनाम् । समासतो विशेषस्तु ज्ञेयो ग्रन्थान्तराद्बुधैः ॥ ५०॥
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इस प्रकार समस्त मनुष्यों की विशुद्धि यहाँ संक्षेप में वर्णित की गई। विद्वानों को विशुद्धि के विषय में विशेष विवरण अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिए।
( वृ०) इति लौकिकप्रायश्चित्तस्वरूपम् अथ ग्रन्थोपसंहारमाहित्थम् -