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प्रायश्चित्तम्
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सङ्घ भक्ति और निर्मल गुरुभक्ति कर जाति दण्ड से मुक्त होना चाहिये इसके अभाव में वह मुक्त नहीं हो सकता।
मिथ्या दृष्टि एवं शूद्र के स्पर्शवाला भोजन करने पर अपवित्र हुए व्यक्ति की शुद्धि के लिए तीर्थङ्करों द्वारा बीस आयम्बिल, द्वादश उपवास, तीस एकाशनायें, सङ्घ की सेवा, पात्र को दान, गुरु सेवा तथा तीन तीर्थयात्रायें, जाति भोजन और तीर्थङ्कर पूजा करके शुद्ध हो अन्यथा जाति से बहिष्कृत हो।
दुहितृमातृचाण्डालीसम्भोगे पातकं भवेत्। तन्नाशार्थं तु पञ्चाशदुपवासाः प्रकीर्तिताः॥३०॥ आचाम्लाश्च त्रयत्रिंशद्दशषष्ठा नवाष्टमाः। एकाशनानि पञ्चाशत् स्वाध्यायस्य तु लक्षकम्॥३१॥ पञ्जैव तीर्थयात्राश्च पूजाः पञ्चाहतामपि। गुरुपूजा सङ्घपूजा पात्रदानादि पूर्ववत्॥३२॥ इति कृत्वा भवेच्छुद्धोऽन्यथा स्यात्पंक्तिवर्जितः। कारुगृहे च वसतः शुद्धिः पञ्चोपवासकैः॥३३॥ तद्गृहे भुञ्जतः शुद्धिश्चतुर्थैर्दशभिस्तथा। गोब्रह्मभ्रूणसाधुस्त्रीघातिनामन्नभोजने ॥३४॥ शुद्धयै दशोपवासा हि कथिता मुनिपुङ्गवैः। भेषजार्थं च गुर्वादिनिग्रहे परबन्धने॥३५॥ महत्तराभियोगे च तथा प्राणार्तिभञ्जने।
यद्यस्य गोत्रे नो भक्ष्यं न पेयं कापि जायते॥३६॥ पुत्री, माता तथा चाण्डाली के साथ सम्भोग करने से हुए पाप के नाश के लिए पचास उपवास कहे गये हैं। तैंतीस आयम्बिल, दस षष्ठ भक्त, नौ अष्टभक्त, पचास एकाशनायें और एक लाख स्वाध्याय, पाँच तीर्थयात्रायें, पाँच जिन पूजा, पूर्वोक्त गुरुपूजा, सङ्घपूजा, पात्र-दान आदि कर शुद्ध हो नहीं तो जाति से बहिष्कृत हो। कारीगर के घर में रहने वाले की शुद्धि पाँच उपवास करने और उसके घर भोजन करने पर दस उपवास से शुद्धि होती है। गाय, ब्राह्मण, भ्रूण, साधु और स्त्री का घात करने वाले (पापियों) का अन्न ग्रहण करने पर मुनि और श्रेष्ठ पुरुषों को दस उपवास के द्वारा शुद्धि करनी चाहिए।
चिकित्सकीय कार्य हेतु गुरु आदि को बाँधना या दबाना, दूसरों को बाँधना, महान पुरुषों के अभियोग तथा प्राण सम्बन्धी कष्ट को दूर करने, जिस जाति के