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लघ्वर्हन्नीति
जिनोपवीतसंस्कारस्तथा कोशस्य वर्द्धनम्। जिनज्ञानौषधादीनां तथा च ज्ञातिभोजनम्॥५॥ इति कृत्वा तथा स्नात्वा तीर्थमृत्साजलेन च। 'सर्वौषधिविमिश्रेण शुद्धो जायेत मानवः॥६॥ अन्यथा ज्ञातिबाह्यत्वान्नोपवेश्यः स्वपंक्तिष।
सहभोज्योऽपि तेन स्यात्तुल्यो ज्ञातिबहिष्कृतः॥७॥ पचास उपवास, उसी प्रकार पचास एकाशनायें (दिन में एकबार भोजन), पाँच तीर्थ-यात्रायें तथा पाँच ही साधर्मिक वात्सल्य, शान्ति स्नात्र सहित पाँच तीर्थङ्कर पूजा, विधिपूर्वक सङ्घ-भक्ति, गुरु-भक्ति और दान, जिन शास्त्र-सम्मत यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार तथा (देवद्रव्य) कोश, ज्ञान, औषधद्रव्य आदि में वृद्धि और बन्धु-बान्धवों को भोजन - यह करके सभी औषधियों के मिश्रण से युक्त तीर्थ की मिट्टी एवं तीर्थजल से स्नान कर मनुष्य को शुद्ध हो जाना चाहिये। अन्यथा (उपरोक्त रीति से प्रायश्चित्त न करने पर) जाति से बाहर होने से वह अपनी (जाति की) पंक्तियों में बैठने (भोजन करने) योग्य नहीं है। उसके साथ बैठकर भोजन करने वाला व्यक्ति भी जाति से बहिष्कृत के समान माना जाये।
किरातचर्मकारादिगृहे यो भुक्तिमाचरेत्।
तस्य शुद्धिरियं प्रोक्ता जैनशास्त्रविशारदैः॥८॥ भिल्ल, चर्मकारादि के घर में बैठकर जो भोजन करे उसकी शुद्धि जैन शास्त्रवेत्ताओं द्वारा इस प्रकार कही गई है।
चत्वारिंशच्योपवासास्तथैवैकाशनानि च। चतस्रस्तीर्थयात्राश्च त्रयः सधर्मिवत्सलाः॥९॥ चतस्रस्त्वर्हतां पूजाः शान्तिकाद्याश्च पूर्ववत्। सङ्घपूजा गुरोः पूजा तथा दानान्यनेकधा॥१०॥ संस्कारो झुपवीतस्य कोशवृद्धिस्तथैव च। भोजनं ज्ञातिलोकस्य स्नानं तीर्थमृदादिभिः॥११॥ पूर्वोक्तं सकलं कृत्यं कृत्वा शुद्धो भवेत्स हि।
अन्यथाचारभ्रष्टत्वात् ज्ञातिबाह्यः स जायते॥१२॥ चालीस उपवास, चालीस एकाशनायें, चार तीर्थयात्राओं, तीन साधर्मिक वात्सल्य, पूर्व की भाँति स्नानादि सहित चार तीर्थङ्कर पूजायें, सङ्घपूजा, गुरुपूजा १. सर्वोषधिविमिश्रेण भ १, भ २, प १, प २॥