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स्त्रीपुरुषधर्मप्रकरणम्
कुलीन स्त्री को अपनी प्रतिष्ठा के लिए वेश्या, योगिनी, दासी, कुलटा तथा शिल्पी स्त्रियों के साथ घनिष्ठता नही करनी चाहिये ।
वह कुलीन स्त्री (उक्त स्त्रियों की) सङ्गति से उनके धर्म, गुण और आचरण अपना लेगी इस कारण आचार- र-शुद्धि के लिए पुरुषों द्वारा सदा स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए।
पूजार्हा
पुत्ररत्नेज्या
रूपलावण्यमण्डिता । श्रीषु स्त्रीषु विशेषो न गृहिणामस्ति कश्चनः ॥३१॥
स्त्रियाँ पूजा के योग्य हैं, पुत्र रूपी रत्न को उत्पन्न करने वाली हैं, रूप और सौन्दर्य से सुशोभित हैं, गृहस्थजनों के लिये लक्ष्मी तथा स्त्रियों में कोई भेद नहीं है।
१.
२.
तद्धर्म' गुणवृत्तीः सा धारयिष्यति सङ्गतः। तस्मादाचारशुद्धयर्थं नृभिः रक्ष्याः सदा स्त्रियः ॥३०॥
३.
४.
५.
६.
नार्ताश्नीयान्मधुं तैलमुच्छिष्टं कोद्रवं तथा ।
विद्धमन्नं परान्नं `चाशौचान्नं न च माषकान् ॥३२॥
रजस्वला स्त्री मधु, तेल, जूठा भोजन, कोदों, विद्ध अन्न, परकीय अन्न, अपवित्र अन्न तथा उड़द का भक्षण न करे। वह मार्ग, राख, गोकुल (गायों के रहने के स्थान), जुते हुए खेत, श्मशान, पर्वत, मन्दिर, नाली, गड्ढे और जीवयुक्त छोटे दह (छिछले गड्ढे) में तथा सूर्य, अग्नि, चन्द्र और देवमन्दिर के सामने मुख करके मलोत्सर्ग नहीं करे।
मलोत्सर्गं न सा मार्गे कुर्याद्भस्मनि गोकुले ।
न क्षेत्रे संस्कृते चैव श्मशाने न च पर्वते ॥ ३३ ॥
देवस्थाने च सरिनि गर्ते सत्त्वयुते "द्रहे । सूर्याग्निचन्द्रायतनसम्मुखं कदाचने॥३४॥
न
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अथ पुरुषधर्मः
प्रसन्नचित्त एकान्ते भजेन्नारीं 'मनोरमाम् ।
प्रसन्नचित्तां सस्नेहां पुत्रार्थं न हि कामतः ॥ ३५ ॥
तद्धर्मगुणावृक्षीः भ २ प १, २ ॥
वार्ता श्रीयान्मधुं भ १, वाती श्रीयान्मधुं भ २, प १ ॥
चाशोचन्नं भ १, भ २, प १, प २ ॥
स्मशाने भ १, भ २, प१प २ ॥ इह भ १, प १, इहे भ २, प २ ॥ मनोरमाः भ २, प २ ॥