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धर्मसूत्र में राजधर्म कहा गया है (आपस्तम्बधर्मसूत्र २.९.२५.१) । कौटिल्य ने भी इसे अर्थशास्त्र नाम दिया है। छान्दोग्य उपनिषद् में राज्य की शासन व्यवस्था के लिये क्षत्रविद्या शब्द का प्रयोग किया है। (छान्दोग्य उपनिषद् ७.१.२, ७.२.१, ७. ७.१) (शिवस्वरूप सहाय, मोती लाल बनारसी दास, दिल्ली २००५, पृ. ५)। महाभारत में राजनीति को अर्थशास्त्र, राजशास्त्र, दण्डनीति (शान्तिपर्व ५९.७८) और राजधर्म ( शान्तिपर्व ५६.५८, ५८.३१) कहा गया है।
ईस्वी शताब्दी से राजशास्त्र के जिन ग्रन्थों का सृजन हुआ वे प्रायः नयशास्त्र अथवा नीतिशास्त्र कहलाये । कामन्दक ने अपनी पद्यमय कृति को नीतिसार कहा है । पञ्चतन्त्र नामक ग्रन्थ में राजनीति शास्त्र का नाम नयशास्त्र दिया गया है (गोपाल, डॉ. लल्लन जी, प्राचीन राजनीतिक विचारधारा, विश्व विद्यालय प्रकाशन, वाराणसी १९९९, पृ. ११) । पुराणों में राजशास्त्र को कई संज्ञाओं से अभिहित किया गया है, यथा, राजधर्म (अग्निपुराण, अध्याय २३९ का नाम राजधर्म है।), राजनीति (अग्निपुराण, अध्याय २४२ का नाम राजनीति है ।) दण्डनीति (वायुपुराण, ५७.८२) तथा अर्थशास्त्र (मत्स्यपुराण २१५.१३)। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों में चण्डेश्वर (१३१५ ई०) ने अपनी पुस्तक का नाम राजनीतिरत्नाकर रखा है। देवभट्ट (१३००ई०) की स्मृतिचन्द्रिका का राजनीतिकाण्ड है । (गोपाल, डॉ. लल्लन जी, प्राचीन राजनीतिक विचार-धारा, विश्व विद्यालय प्रकाशन, वाराणसी १९९९, पृ.११)
राजनीति शास्त्र के प्रणेता
आचार्य हेमचन्द्र ने लघ्वर्हन्नीति में प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव को राजाओं के नीतिमार्ग का प्रणेता बताया है
ततो जगाद भगवान् शृणु भो मगधेश्वर ! | कालेऽस्मिन्नादिमो भूप ऋषभोऽभूज्जिनेश्वरः॥१-१३॥ स एव कल्पद्रुमफले क्षीणे कालप्रभावतः। भारतान् दुःखितान् दृष्ट्वा कलिछद्मपरायणान्॥१-१४॥ कारुण्याद्युग्मजातानां छित्वा धर्मं पुरातनम् । वर्णाश्रमविभागं वै तत्संस्कारविधिं पुनः ॥१- १५ ॥ कृषिवाणिज्यशिल्पादिव्यवहारविधिं तथा।
नीतिमार्गं च भूपानां पुरपट्टनसंस्थितिम् ॥१- १६ ॥
विद्याः सर्वाः क्रियाः सर्वाः ऐहिकामुष्मिका अपि । प्रादुश्चकार भगवान् लोकानां हितकाम्यया॥१-१७॥