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लघ्वर्हन्नीति
(वृ०) यः कैतवेन कञ्चिद्वञ्चयेत्स दण्ड्य इत्याह - जो कपटवश किसी को ठगे वह दण्डनीय है -
राज्यगेहे श्रुतं मित्र नृपः क्रुद्धस्तवोपरि।
ततस्त्वं मद्गृहे तिष्ठ रक्षामि त्वामसंशयम्॥२२॥ हे मित्र! राजसभा में मैंने सुना है कि राजा तुमसे क्रुद्ध है इसलिए तुम मेरे घर में रहो निश्चय ही मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।
चेद्भूपस्त्वद्गृहस्थानि वस्तूनि द्राक् गृहीष्यति । त्वदिच्छा चेत्समस्तानि मद्गहे स्थापयाम्यहम्॥२३॥ इत्येवं कैतवं कृत्वा भयं दत्वा हरेद्धनम्। कन्यावास्तुहिरण्यादि हेतुभिर्विविधैः खलः॥२४॥ स दण्ड्यो भूमिपालेन कारागारादिबन्धनैः। निर्वास्यो नगरात्स्वीयात्सर्वलोकप्रपञ्चकः॥२५॥
यदि (आशङ्का है) कि राजा तुम्हारे घर की वस्तुओं का अधिग्रहण कर लेगा (अतः) यदि तुम्हारी इच्छा हो तो (तुम्हारी) समस्त वस्तुओं को मैं अपने घर में रख लेता हूँ। इस प्रकार छल कर, भय देकर धन हरण कर लेता है। कन्या, गृह, स्वर्ण आदि के लिए अनेक प्रकार के दुष्ट आचरण द्वारा (वह वस्तु ग्रहण करता है)। वह (दुष्ट) राजा द्वारा कारागार आदि में डालने (रूप) दण्ड द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए। सभी लोगों को ठगने वाले उस दुष्ट को अपने नगर से निर्वासित कर देना चाहिए। (वृ०) साक्षिनिश्चितवादविषयमाह - साक्षियों द्वारा निर्णीत किये जाने वाले वादों के विषय का कथनसाक्षिनिश्चितनिक्षेपविवादेऽन्योऽन्यमेव च।
यावत्साक्ष्यादिभिः सिद्धयेत्तदेव स्यात्प्रमाणयुक्॥२६॥ साक्षियों द्वारा निश्चित होने वाले 'निक्षेप' सम्बन्धी विवाद में जिन साक्षियों से एक-दूसरे की बात सिद्ध हो वही (तथ्य) प्रमाण के योग्य है।
(वृ०) एतद्विषये साक्षिणो भिन्ना भवन्ति तेषु योग्यायोग्यानाह
न्यास के विषय में साक्षी भिन्न होते हैं उनकी योग्यता-अयोग्यता के विषय में कथन
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गृहिष्यति भ १, भ २, प २।।