________________
तृतीय अधिकार
३.८ क्रयेतरानुसन्तापप्रकरणम् " श्रीश्रेयांसं नमस्कृत्य वादिकौशिकभास्करम्।
क्रयेतरानुसन्तापः कथ्यतेऽत्र समासतः॥१॥ वादी रूपी उलूक के लिए सूर्य के समान तीर्थङ्कर श्री श्रेयांसनाथ की वन्दना कर यहाँ क्रय-विक्रय (के बाद के) दुःख का कथन किया जाता है।
(वृ०) पूर्वस्मिनप्रकरणे भृत्या वर्णिताः तत्सहितो धनी तद्द्वारा स्वयं वा क्रय-विक्रयावपि कुरुते तत्र वस्तुपरीक्षामन्तरा तज्जनितानुशयोऽपि भवतीतिसम्बन्धसम्बद्धं तत्स्वरूपं कथ्यते -
पूर्व प्रकरण में नौकरों का वर्णन है, नौकरयुक्त स्वामी नौकर के माध्यम से अथवा स्वयं क्रय-विक्रय भी करता है जिसमें वस्तु-परीक्षा के विना क्रय-विक्रय से उत्पन्न दुःख या पश्चात्ताप भी होता है इसलिए व्यापार से सम्बन्धित पश्चात्ताप का स्वरूप वर्णित किया जाता है -
(वृ०) क्रीतानुशयलक्षणमाह - क्रय से उत्पन्न पश्चात्ताप के लक्षण का कथन -
क्रेता पणेन पण्यं यः क्रीत्वा जानाति नो बहु।
पश्चात्तापो भवेत्तस्य स क्रीतानुशयः स्मृतः॥२॥ जो खरीदार मूल्य द्वारा विक्रेय वस्तु को क्रय कर (पुनः) हमें (मूल्य) अत्यधिक जान पड़ता है उसे (इस प्रकार) पश्चात्ताप हो तो वह क्रीतानुशय (क्रय कर पछताना) कहा जाता है।
(वृ०) विक्रीतानुशयलक्षणमाह - विक्रय से उत्पन्न पश्चात्ताप के लक्षण का वर्णन -
१.
भवेतस्य भ १, भ २, प १, प २॥