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दायभागप्रकरणम्
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पुनर्धातुः सकाशाद्यत्प्राप्तं पितृगृहात्तथा।
ऊढाया स्वर्णरत्नादि तत्स्यादौदयिकं धनम्॥१४०॥ पुनः भाई के पास से तथा पितृगृह से प्राप्त विवाहिता का स्वर्णरत्नादि धन औदयिक स्त्रीधन हो।
परिक्रमणकाले यद्दत्तं रत्नांशुकादिकम्।
जायापतिकुलस्त्रीभिस्तदन्वाधेयमुच्यते ॥१४१॥ विवाह के समय फेरे लेते हुए जो रत्न, रेशमी वस्त्रादि दम्पतियों और परिवार की स्त्रियों द्वारा विवाहिता को दिया जाता है वह अन्चाधेय धन कहा जाता है।
एतत्स्त्रीधनामादातुं न शक्तः कोऽपि सर्वथा।
भागान॥ यतः प्रोक्तं सर्वैर्नीतिविशारदैः॥१४२॥ इस (उपरोक्त पाँच प्रकार के) स्त्री धन को लेने का कोई भी अधिकारी नहीं है। सभी नीतिशास्त्रकारों ने इस धन को विभाजन के अनुपयुक्त कहा है।
धारणार्थमलङ्कारो भर्ना दत्तो न केनचित्।
ग्राह्यः पतिमृतौ सोऽपि व्रजेत्स्त्रीधनतां यतः।।१४३॥ यदि पति द्वारा अलङ्कार धारण करने के लिए दिया गया है तो कोई उसे ग्रहण नहीं कर सकता। पति की मृत्यु हो जाने पर उसे भी छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह (आभूषण) स्त्रीधन हो जाता है।
(वृ०) ननु स्त्रीधनमपि भर्ता कदाचित् गृहीतुं शक्यते न वेत्याह -
स्त्री-सम्पत्ति को भी पति कभी ग्रहण कर सकने में समर्थ है अथवा नहीं, यह बताया
व्याधौ धर्मे च दुर्भिक्षे विपत्तौ प्रतिरोधके।
भर्तानन्यगतिः स्त्रीस्वं लात्वा दातुं न चाहति॥१४४॥ गम्भीर रोग, धर्मकार्य, दुर्भिक्ष, विपत्ति और कैद में होने पर कोई विकल्प न / हो तो स्त्रीधन लेकर पति वापस न करे।
(वृ०) अथ देशाचारादिवैपरीत्ये कस्य बलाबलत्वं तदाह -
इसके पश्चात् देश के रीति-रिवाज के विरुद्ध होने पर किसका तुलनात्मक महत्त्व या महत्त्वशून्यता है, यह बताया -
सम्भवेदत्र वैचित्र्यं देशाचारादिभेदतः। यत्र यस्य प्रधानत्वं तत्र सो बलवत्तरः॥१४५॥