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दायभागप्रकरणम्
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निह्नते कोऽपि चेज्जाते विभागे तस्य निर्णयः।
लेख्येन बन्धुलोकादिसाक्षिभिर्भिन्नकर्मभिः॥१२८॥ ___ यदि कोइ धन छिपाता है तो विभाजन हो जाने पर उसका निर्णय लेखाकार, भाइयों और लोगों के साक्ष्य तथा अलग-अलग कार्यों से करना चाहिए।
अविभागे तु भ्रातृणां व्यवहार उदाहृतः। एक एव विभागे तु सर्वः सञ्जायते पृथक्॥१२९॥ जब तक (सम्पत्ति का) विभाजन नहीं हुआ है तब तक भाइयों का व्यवहार एक (संयुक्त) ही रहेगा, विभाजन हो जाने पर सबका व्यवहार अलग हो जाता है।
(वृ०) ननु भ्रातृभिर्धातृजाया कथं माननीयेत्याह - भाइयों द्वारा भाई की स्त्री को किस रूप में मानना चाहिए, यह कथन -
भ्रातृवद्विधवा मान्या भ्रातृजाया सुबन्धुभिः।
तदिच्छया सुतस्तस्य स्थाप्यो भ्रातृपदे च तैः॥१३०॥ भाई की पत्नी के विधवा हो जाने पर उत्तम भाइयों द्वारा उसे भाई के समान आदर करना चाहिए और उसकी इच्छा से उसके पुत्र को भाई के स्थान पर स्थापित करना चाहिए।
(वृ०) अथाविभागीयधनमह - इसके पश्चात् जिस सम्पत्ति का विभाजन न हो उसके विषय में कथन -
यत्किञ्चिद्वस्तुजातं हि स्वरामाभूषणादिकम्।
यस्मै दत्तं पितृभ्यां च तत्तस्यैव सदा भवेत्॥१३१॥ कोई सम्पत्ति धन, उपवन, आभूषण आदि जो कुछ माता-पिता ने जिसको दिया है वह सदा उसका ही होगा।
अविनाश्य पितुर्द्रव्यं भ्रातृणामसहायतः। हृतं कुलागतं द्रव्यं पित्रा नैव यदुद्धृतम्॥१३२॥ तदुद्धृत्य समानीतं लब्धं विद्याबलेन च। प्राप्तं मित्राद्विवाहे वा तथा शौर्येण सेवया॥१३३॥ अर्जितं येन यत्किञ्चित्तत्तस्यैवाखिलं भवेत्।
तत्र भागहरा न स्युरन्ये केऽपि च भ्रातरः॥१३४॥ पिता के धन का विनाश न कर भाइयों की बिना सहायता के जिस धन का कुल परम्परा से (दूसरों द्वारा) हरण कर लिया गया है, जिसका पिता द्वारा भी उद्धार