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लघ्वर्हन्नीति
जो सम्पत्ति अपनी कन्या को दे दिया है और जो जामाता के परिवार से प्राप्त हुई है वह धन (विधवा के) पिता के कुल में उत्पन्न कोई भी ग्रहण न करे।
'किन्तु त्राता न कोऽपि स्यात्तदा तां तद्धनं तथा।
रक्षेत्तस्या मृतौ तच्च धर्ममार्गे नियोजयेत्॥८१॥ परन्तु (उस विधवा का) कोई रक्षक न हो तब उसकी तथा उसके धन की रक्षा करनी चाहिए और उस (विधवा) की मृत्यु हो जाने पर धन का धर्म के मार्ग में उपयोग करना चाहिए। ___(वृ०) असुरादिपापविवाहविवाहितकन्याधनं तु पुत्राभावे मातृपितृभ्रातरो गृह्णन्ति तैरदत्वादितिविशेषः।
असुरादि पापविवाह अर्थात् जिन विवाहों में कन्यादान आदि सम्पन्न न किया गया हो ऐसे विवाह द्वारा विवाहित पुत्ररहित कन्या के धन को माता-पिता और भाई ग्रहण करते हैं क्योंकि उनके द्वारा कन्यादान नहीं किया गया है।
ननु मातृसत्वे पुत्रस्य कियानधिकार इत्याह - माता के होने पर पुत्र का कितना अधिकार, इसका कथन -
आत्मजो दत्रिमादिश्च विद्याभ्यासैकतत्परः। मातृभक्तियुतः शान्तः सत्यवक्ता जितेन्द्रियः॥८२॥ समर्थो व्यसनापेतः कुर्याद्रीतिं कुलागताम्।
कर्तुं शक्तो विशेषं नो मातुराज्ञां विमुच्य वै॥८३॥ विवाहिता पत्नी से उत्पन्न पुत्र, दत्तकादि पुत्र, विद्याभ्यास में तल्लीन, मातृ की भक्ति वाला, शान्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, समर्थ (सोलह वर्ष से अधिक), व्यसन रहित, कुलपरम्परा से प्राप्त परिपाटियों का पालन करने वाला, माता की आज्ञा को छोड़कर कुछ विशेष करने में समर्थ नहीं है।
(वृ०) अत्र समर्थ इति षोडशवर्षातिगो ज्ञेयस्तदन्तर्बालभवेनासमर्थत्वात्।
प्रस्तुत श्लोक में समर्थ शब्द सोलह वर्ष से अधिक के लिये जानना चाहिए उसके अन्दर (कम) बालक रूप असमर्थ होने से।
ननु जननीसत्वे पुत्रः पैन्यपैतामहादिवस्तूनां दानं विक्रयं वा किं कर्तुं शक्नोतीत्याह -
माता के होने पर पिता अथवा पितामह की वस्तुओं का दान अथवा विक्रय करने में पुत्र समर्थ है अथवा नहीं, इसका कथन - १. न किन्तु त्राता न भ १, भ २, प २, ना किन्तु त्राता न प १॥