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लघ्वर्हन्नीति
लोभादिकारणाज्जाते कलौ तेषां परस्परम्।
न्यायानुसारिभिः कार्या दायभागविचारणा॥१३॥ लोभादि के कारण उनमें परस्पर कलह उत्पन्न होने पर न्याय के अनुसार दायभाग का विचार करना चाहिए।
(वृ०) सा चेत्थम् -
और वह (दायभाग की विचारणा) इस (निम्नलिखित) प्रकार है - ननु पुत्राणां कथं दायभागः स्यादत आह - पुत्रों का दायभाग किस प्रकार हो, उसका कथन -
पित्रोरूर्ध्वं तु पुत्राणां भागः सम उदाहृतः।
तयोरन्यतमे नूनं भवेद्भागस्तदिच्छया॥१४॥ माता-पिता के दिवङ्गत हो जाने पर तो सम्पति में पुत्रों का हिस्सा बराबर कहा गया है। उन दोनों (माता-पिता) में से एक के (जीवित रहने पर) निश्चय ही उसकी इच्छा से हिस्सा हो।
(वृ०) मातृपित्रोमरणानन्तरं पुत्राणां समो भागं भवति।
माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् (सम्पत्ति) में पुत्रों का बराबर का हिस्सा होता है।
तयोरन्यतमेऽपि सति द्वयोर्वा सतोस्तदिच्छयैव भागः स्यात्।
उन दोनों (माता-पिता) में से एक के जीवित होने पर अथवा दोनों के जीवित होने पर उनकी इच्छानुसार ही सम्पत्ति का विभाजन होता है।
ध्यात्व न्यत्र जेष्ठाय द्विगुणं दद्यादित्यादिविषमभागकल्पना पिनेच्छानुसारिण्युक्ता सा तु पैतृके धने एव न तु पैतामहे।
अन्य ग्रन्थों में जो ज्येष्ठ को दोगुना देना चाहिए इत्यादि विषम भाग की कल्पना पिता की इच्छानुसार बताई गई है वह पिता के धन के सम्बन्ध में ही है पितामह के नहीं।
पित्रोर्ऋणं कैः कथं च देयमित्याह -
पिता द्वारा लिया गया ऋण किसके द्वारा और किस रीति से देय है, इसका कथन
विभक्ता अविभक्ता वा सर्वे पुत्राः समांशतः। पित्रोणं प्रदत्वैव भवेयुर्भागभागिनः॥१५॥