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तृतीय अधिकार
३.४ देयविधिप्रकरणम्
श्रीसुपार्श्वजिनं नत्वा सप्तमं तीर्थनायकम्।
देयादेयविधिं सम्यग् विवृणोमि समासतः॥१॥ सप्तम तीर्थङ्कर श्री सुपार्श्वनाथ जिन का वन्दन कर देय-अदेय विधि का संक्षेप में भली प्रकार वर्णन करता हूँ।
पूर्वप्रकरणे सम्भूयोत्थानं प्रतिपादितं तत्र कश्चित्तत् साधारणद्रव्याद्दानमपि करोति अतो देयादेयव्यवस्थानिरूपणाय देयविधिरधुना व्याख्यायते।
पूर्व प्रकरण में सम्भूयोत्थान प्रतिपादित किया गया है। इसमें कोई साधारण द्रव्य का दान भी करता है इसलिए देयादेयव्यवस्था का निरूपण करने के लिए अब देयविधि की व्याख्या की जाती है।
व्यवहारविधौ देयविधिः सो द्विविधः स्मृतः।
दत्ताप्रदानिकं नाम दत्तस्यानपकर्म च॥२॥ व्यवहार विधि में देय विधि दो प्रकार की कही गई है - दत्ताप्रदानिक और दत्तानपकर्म।
द्रव्यं दत्वा च यो सम्यगादातुं पुनरिच्छति।
दत्ताप्रदानिकाख्यः विकल्पः प्रथमो मतः॥३॥ भली-भाँति धन देकर जो पुनः लेना चाहता है वह दत्ताप्रदानिक नाम का प्रथम भेद माना गया है।
सम्यग् दत्तं च यद्रव्यमाहर्तुं तन्न शक्यते।
व्यवहारपदं दत्तानपकर्मेति नामतः॥४॥ भली-भाँति दिये गये जिस धन को वापस लेने में (दाता) समर्थ न हो व्यवहार की दृष्टि से उसे दत्तानपकर्म नाम से जाना जाता है।