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श्रावक प्रज्ञप्तिः
सेसा उ तिरियमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य ।
उभओ विअ भइअन्वा पज्जत्तियरेत्ति जिणवयणं ॥ ७१ ॥
शेषास्तु तिर्यङ्मनुष्याः संमूर्छनजाः सङ्खयेयवर्षायुषश्च गर्भजाः । किम् ? लब्धि प्राप्य पर्याप्तकलब्धिमधिकृत्य । उपपातकाले चोत्पद्यमानावस्थायां च । किम् ? उभयतोऽपि भाज्या विकल्पनीयाः पर्याप्तका इतरे वापर्याप्तकाः । एतदुक्तं भवति - लब्धितोऽपि पर्याप्ता अपर्याप्तका अपि भवन्ति । उपपातावस्थायां त्वपर्याप्तका एव । इति जिनवचनं इत्येष आगम इति ॥७०-७१॥ व्याख्यातं पर्याप्तकद्वारं, तदनन्तरं शुक्लपाक्षिकद्वारमाहजेसिमवड्ढो पुग्गल परियो सेसओ उ संसारो ।
ते सुक्कपक्खि खलु अहिए पुण किन्हपक्खीयां ॥ ७२ ॥
येषामुपाद्गपरावर्त एव शेषः संसारस्तत ऊर्ध्वं सेत्स्यन्ति ते शुक्लपाक्षिकाः क्षीणप्रायसंसाराः । खलुशब्दो विशेषणार्थः - प्राप्तदर्शना वा अप्राप्तदर्शना वा सन्तीति विशेषयति । अधिके पुनरुपार्धपुद्गलपरावर्ते संसारे कृष्णपाक्षिकाः क्रूरकर्माण इत्यर्थः । पुद्गलपरावर्तो नाम त्रैलोक्य
अब उन शेष जीवोंका निर्देश किया जाता है जो लब्धिको प्राप्त होकर और उपपात कालमें भी पर्याप्त व अपर्याप्त होते हैं
शेष - सम्मूर्छन जन्मवाले और संख्येय वर्षायुष्क - तियंच व मनुष्य लब्धिको प्राप्त करके और उत्पत्तिकाल में भी पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों रूपोंमें विकल्पके योग्य हैं - वे कदाचित् पर्याप्त भी होते हैं व कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं, ऐसा आगम वचन है ।
विवेचन - जो जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय, प्राणापान, भाषा और मन इन पर्याप्तियोंसे रहित होते हैं वे अपर्याप्त तथा जो यथासम्भव उनसे सहित होते हैं वे पर्याप्त कहलाते हैं । नारक, देव और असंख्यात वर्षको आयुवाले ( भोगभूमिज ) तियंच व मनुष्य ये उत्पन्न होने के समय में ही अन्तर्मुहूर्त काल तक अपर्याप्त (निवृत्यपर्याप्त) होते हैं, तत्पश्चात् वे उक्त पर्याप्तियोंसे पूर्ण होकर पर्याप्त हो जाते हैं । उपर्युक्त देवादिकोंको छोड़कर शेष रहे सम्मूर्छन जन्मवाले तथा. संख्यात वर्षकी आयुवाले ( कर्मभूमिज ) गर्भंज तियंच और मनुष्य ये उत्पत्तिकाल में तो अपर्याप्त हो होते हैं, पर पर्याप्तकलब्धिकी अपेक्षा वे पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं - उनमें से कितने ही जन्म ग्रहण के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में अपने योग्य पर्याप्तियोंको पूरा करके पर्याप्त हो जाते हैं और कितने ही मरणको प्राप्त होते हुए उन पर्याप्तियोंको पूर्ण न कर सकने के कारण अपर्याप्त ( लब्ध्यपर्याप्त ) ही बने रहते हैं || ७०-७१ ॥
आगे शुक्ल पाक्षिक द्वारका निरूपण करते हुए शुक्लपाक्षिक व कृष्णपाक्षिक जीवों का स्वरूप . कहा जाता है—
जिनका संसार उपार्धपुद्गलपरावर्त मात्र शेष रहा है वे शुक्लपाक्षिक ओर जिनका संसार उससे अधिक शेष रहा है वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं ।
विवेचन - तीनों लोकोंमें अवस्थित समस्त पुद्गलोंको औदारिक आदि शरीरोंके रूपसे ग्रहण कर लेने में जितना काल बीतता है उतने कालका नाम पुद्गलपरावर्त है । अर्धपुद्गल परावर्तसे कुछ कम कालको उपार्धपुद्गल परावर्त कहा जाता है। जिन जीवोंका संसार प्रायः
१. अ जेसि अवढो । २. अ सक्कुपक्षिया । ३. अ अहिगे पुण किण्हपक्खीउ ।
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