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दिति आह - तत एव भावात् तस्मादेव अनादिपारिणामिकादभव्यत्वभावादिति भावः । नवरमिति साभिप्रायकम्, अभिप्रायश्च नवरमेतावता वैपरीत्यमिति ॥६७॥
श्रावक प्रज्ञप्तिः
भव्यद्वारानन्तरमाहारकद्वारमाह
विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ ६८ ॥
विग्रहगतिमापन्ना अपान्तरालगतिवृत्तय इत्यर्थः । केवलिनः समवहताः समुद्घातं गताः । अयोनिश्च केवलिन एव शैलेश्यवस्थायामिति । सिद्धाश्च मुक्तिभाजः । एतेऽनाहारकाः, ओजाद्याहाराणामन्यतमेनाप्यमी नाहारयन्तीत्यर्थः । शेषा उक्तविलक्षणाः । आहारका जीवा ओज-लोमप्रक्षेपाहाराणां यथासंभवं येन केनचिदाहारेणेति ॥ ६८ ॥ तेऽपि यावन्तं कालमनाहारकाः तांस्तथाभिधातुकाम ग्रह
चाहिए कि अभव्य जीव उस प्रकारकी योग्यता न होनेसे तीनों ही कालों में कभी मुक्त नहीं हो सकते, उनका संसार अनादि अनन्त है ||६७||
आगे कोन जीव आहारक होते हैं और कौन अनाहारक, इसे स्पष्ट किया जाता हैविग्रहगतिको प्राप्त, समुद्घातगत केवली, अयोगिकेवली और सिद्ध जीव ये अनाहारक होते हैं। शेष सब जीव आहारक होते हैं ।
विवेचन - ओदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों तथा छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलपिण्डका नाम आहार है। जो जीव इस आहारको ग्रहण करते हैं वे आहारक और जो उसे नहीं ग्रहण करते हैं वे अनाहारक कहलाते हैं । विग्रहका अर्थ शरीर है, शरीर के लिए - पूर्वं शरीरको छोड़कर नवीन शरीर धारण करनेके लिए जो जीवकी गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । अथवा विग्रहका अर्थ मोड़ भी होता है, इस मोड़से युक्त या उसकी प्रधानतासे जो गति होती है उसे विग्रहगति जानना चाहिए। इस विग्रहगति में वर्तमान जीव उस आहारको नहीं ग्रहण करते हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर ( मन्थ ) ओर लोकपूरणके भेदसे केवलिसमुद्घात चार प्रकारका है । उनमें प्रतर, लोकपूरण और पुनःप्रतर ( लौटते हुए ) इनमें वर्तमान सयोगिकेवली प्रकृत - समुद्घातके तीसरे, चौथे और पांचवें समय में आहारको ग्रहण नहीं करते । शैलेश्य- शैलेश ( मेरु पर्वत) के समान निश्चलता - अवस्थाको प्राप्त अयोगिकेवली और सिद्ध परमात्मा भी उक्त आहारको नहीं ग्रहण किया करते हैं । इनको छोड़कर शेष सब जीव ओज, लोम और प्रक्षेप इन आहारों में से यथासम्भव किसी आहारके ग्रहण करनेके कारण आहारक होते हैं । जिस प्रकार अतिशय तपे हुए बर्तनको पानी में डालनेपर वह सब प्रदेशोंके द्वारा पानीको ग्रहण किया करता है, अथवा तपे हुए घी में प्रथम समयमें छोड़ा गया अपूप ( दुआ ) जिस प्रकार सब प्रदेशोंसे घीको ग्रहण किया करता है, उसी प्रकार अपर्याप्त अवस्था में प्रथमोत्पत्ति के समय जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक कार्मण शरीरके द्वारा जो सब प्रदेशोंसे पुद्गलोंको ग्रहण किया करता है; इसका नाम ओज आहार है । शरीर पर्याप्तिके पश्चात् जीव बाहरी चमड़ीसे रोमोंके द्वारा जिस आहार ( पुद्गलfeos ) को ग्रहण किया करता है उसे लोमाहार कहा जाता है । कवल ( ग्रास ) के रूपमें जिस भोजन-पान आदिका मुखके भीतर प्रक्षेप किया जाता है वह प्रक्षेपाहार या कवलाहार कहलाता है । उपर्युक्त विग्रहगति में वर्तमान आदि चार प्रकारके जीवोंको छोड़कर अन्य सब जीव इन तीन प्रकारके आहारों में से किसी न किसी आहारको ग्रहण किया करते हैं, इसीसे उन्हें आहारक कहा जाता है ॥६८॥