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श्रावकप्रज्ञप्तिः
संसारिण एव प्रतिपादयन् द्वारगाथामाह
भव्वाहारगपज्जत्तसुक्कसोवक्कमाउया चेव ।
सप्पडिपक्खा एए भणिया कमट्ठमहणेहिं ॥६५॥ त्रस्त–'उद्वेगके वश होकर अन्यत्र गमन करनेवालोंको त्रस कहना चाहिए' इस शंकाका समाधान करते हुए कहा गया है कि वैसा माननेपर जो जीव गर्भ में स्थित हैं, अण्डज हैं, मूछित हैं अथवा सोये हुए हैं; इत्यादिके बाह्य भयके निमित्तके उपस्थित होनेपर गमन क्रिया चूंकि सम्भव नहीं है, अतएव उनके अत्रसत्व (त्रसभिन्नता) का प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा। इसी प्रकार स्थानशील-एक ही स्थानपर स्वभावतः स्थित रहनेवाले-जीवोंको स्थावर मान लेनेपर वायु, तेज और जल इनका देशान्तरमें गमन देखे जानेसे उनके अस्थावरत्व (स्थावरभिन्नता) का प्रसंग भी दुनिवार होगा। इसपर यदि यह कहा जाये कि वायु आदिके अस्थावरता तो अभीष्ट ही है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस अवस्थामें उनके आगमकी अनभिज्ञता प्रकट होती है। इसका कारण यह है कि सत्प्ररूपणामें कायानुवादसे द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त त्रस जीवोंका सद्भाव कहा गया है, ऐसी आगमकी व्यवस्था है। वह सत्प्ररूपणाका सूत्र इस प्रकार है
तसकाइया वीइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति। षट्खण्डागम १, १, ४४-प्र. १, पृ. २७५ ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके आधारसे तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (२-१२) के टीकाकार सिद्धसेन गणिका भी यहो अभिप्राय रहा है कि त्रस नामकर्मके उदयसे जीव अस और स्थावर नामकर्मके उदयसे जीव स्थावर होते हैं। इस प्रकारसे उन्होंने पृथिवी आदि पांचोंको ही स्थावर माना है।
___ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( ८-१२ ) में त्रस व स्थावर नामकर्मों के प्रसंगमें इतना कहा गया है कि जो कर्म त्रस पर्यायका निवर्तक है उसे त्रस नामकर्म और जो स्थावर पर्यायका निवर्तक है उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं। वहां त्रस और स्थावर पर्यायका कुछ स्पष्टीकरण नहीं . किया गया।
योगशास्त्रके स्वो. विवरण (१-१६) में भूमि, अप, तेज, वायु और महीरुह (वनस्पति) इन एकेन्द्रिय जीवोंको स्थावर कहा गया है। इसी प्रकार प्रज्ञापनाकी मलयगिरि विरचित वृत्ति ( २२३, पृ. ४७४ ) में स्थावर नामकर्मके स्वरूपका निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसके उदयसे उष्णतासे सन्तप्त होनेपर भी उस स्थानके छोड़नेमें असमर्थ पृथिवी, अप्, तेज, वायु और वनस्पति जीव हुआ करते हैं वह स्थावर नामकर्म कहलाता है। जीवाभिगम सूत्रकी मलयगिरि विरचित वृत्ति (९, पृ. ९) में त्रस जीवोंके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि जो उष्ण आदिसे सन्तप्त होते हुए विवक्षित स्थानसे त्रस्त-उद्विग्न होकर छाया आदिके आसेवनार्थ स्थानान्तरको जाते हैं वे त्रस कहलाते हैं। इस व्युत्पत्तिसे त्रस नामकर्मके उदयके वशवर्ती जीव ही सरूपसे ग्रहण किये जाते हैं, शेष-स्थावर नामकर्मके उदयके वशवर्ती जीव नहीं ॥६४॥
___ अब आगेकी गाथामें उन दस द्वारोंका निर्देश किया जाता है जिनके द्वारा प्रकृत संसारी जीवोंकी यथा-क्रमसे प्ररूपणा की जानेवाली है