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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[४०कमपुद्गलाः सर्वे जीवैर्युज्यन्ते कालान्तरेण सर्वे जीवैः संबध्यन्ते, प्रभूततरग्रहणादल्पतरमोक्षाच्च, सहस्र मिव प्रतिदिवसं पञ्चरूपकग्रहणे' एकरूपकमोक्षे च दिवसत्रयान्तः पुरुषशतेनेनि ॥३९॥ आह चोदकः
मोक्खो ऽसंखिज्जाओ कालाओ ते अजं जिएहिंतो।
भणिया र्णतगुणा खलु न एस दोसो तओ जुत्तो ॥४०॥ मोक्षः परित्यागः। असङ्घययात्कालादसङ्ख्येयेन कालेन उत्कृष्टतस्तेषां कर्मपुद्गलानाम्, तत ऊध्वं कर्मस्थितेः प्रतिषिद्धत्वात् । ते च कर्माणवः। यतो यस्माज्जीवेभ्यः सर्वेभ्य एव । भणिताः प्रतिपादिता अनन्तगुणाः । खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वादनन्तगुणा एव । नैष दोषोऽनन्तरोदितो बन्धाभावप्राप्तिकाललक्षणः। ततो युक्तो बहुतरबन्धः, प्रभूततरग्रहणेऽल्पतरमोक्षे च सत्यपि तेषामनन्तत्वात् स्तोककालाच्च मोक्षादिति। न हि शीर्षप्रहेलिकान्तस्य राशेः प्रतिदिवसं पञ्च. करता है। मिथ्यादृष्टि असंयतके लिए भी यह ऐकान्तिक नियम नहीं है, वह भी बहुलतासे उस प्रकारके अधिक कर्मबन्धको करता है, नियमतः वैसा नहीं करता। यदि ऐसा न मानकर यही माना जाये कि सभी असंयत जीव नियमसे कर्मके बन्धको अधिक और निर्जरा थोड़ी किया करते हैं तो फिर अनन्तगुणित वृद्धिसे कर्मबन्धके होनेपर बध्यमान वे सब कर्मपुद्गल कालान्तरमें जावाक साथ सम्बद्ध हो जावेंगे। कारण यह कि उनका ग्रहण तो प्रचुरतर मात्रामें होता है और निर्जरा अल्पतर मात्रामें होती है। तब वैसी अवस्थामें सब कर्मपुद्गलोंके समाप्त हो जानेपर अनिवार्यतः कर्मबन्धके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। उदाहरणस्वरूप हजार संख्यामेंसे प्रतिदिन यदि सो पुरुषोंके द्वारा पांच-पांच अंक ग्रहण किये जाते हैं और एक-एक छोड़ा जाता है तो वह राशि तीन दिनके भीतर ही समाप्त हो जाने वाली है। अतएव उक्त आगमका यही अभिप्राय समझना चाहिए कि सभी असंयत जीव उक्त क्रमसे अधिक कर्मबन्धको नहीं करते हैं, किन्तु असंयत मिथ्यादृष्टि हो और वह भी बहुलतासे उक्त प्रकार अधिक कर्मबन्धको करता है। इस प्रकार शंकाकारके द्वारा प्रदर्शित वह दोष सम्भव नहीं है ।।३८-३९॥
इसपर शंकाकार पुनः यह कहता है
उन कर्मपुद्गलोंका मोक्ष तो असंख्यात कालमें ही होता है, जब कि वे ( कर्मपुद्गल) सब जीवोंसे अनन्तगुणे कहे गये हैं। ऐसी परिस्थिति में यह जो दोष दिया गया है कि उन पुद्गलोंके समाप्त हो जानेसे बन्धका अभाव प्राप्त होगा, वह उचित नहीं है।
विवेचन-शंकाकारकी पूर्व शंकाका निरसन करते हुए यह कहा गया था कि आगममें जो वह बन्धकी प्रक्रिया निर्दिष्ट की गयी है वह सामान्यसे निर्दिष्ट की गयी है, विशेषरूप में केवल कोईकोई असंयत मिथ्यादृष्टि जीव और वह भी बहुलतासे, न कि नियमसे, प्रचुरतर कर्मपुद्गलोंको बांधता है, सभी असंयत उस प्रकारसे नहीं बांधते। ऐसा न होनेपर उक्त प्रकारको बन्ध प्रक्रिय कालान्तरमें सब कर्मपुद्गलोंके समाप्त हो जानेसे बन्धके अभावका प्रसंग अनिवार्य होगा। इस समाधानको असंगत ठहराता हुआ वह शंकाकार पुनः यह कहता है कि बन्धयोग्य वे सब पुद्गल जब समस्त जोवराशिसे अनन्तगुणे हैं तथा मोक्ष (निर्जरा) उनका असंख्यात कालके भीतर ही हो जाता है, क्योंकि असंख्यात काल ( सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम) से अधिक कर्मस्थिति सम्भव नहीं है, तब वैसो अवस्थामें न वे समाप्त ही हो सकते हैं और न इसीलिए बन्धका अभाव भी
१. अपंचकरूपक । २. मोक्षव दिवसः त्रयांतः ।