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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[३१ - एवं ठिइयस्स जया घंसण-घोलणनिमित्तओ कहवि ।
खविया कोडाकोडी सव्वा इक्कं पमुत्तणं ॥३१॥ एवंस्थितेरस्य कर्मणः । यदा यस्मिन् काले । घर्षण-घूर्णननिमित्ततो नानायोनिषु चित्रसुखदुःखानुभवनेनेत्यर्थः । कथमपि केनचित्प्रकारेण । क्षपिताः प्रलयं नीताः । कोटिकोट्यः सर्वाज्ञानावरणादिसंबन्धिन्यः एका विमच्य विहायेति ॥३१॥
नीई विथ थोवमित्ते खविए इत्थंतरम्भि जीवस्स ।
हवइ हु अभिभावो गंठी एवं जिणा बेति' ।।३२॥ तस्या अपि च सागरोषमकोटिकोट्याः स्तोकमात्रे पल्योपमासङ्येयभागे। क्षपितेऽपनीते । अत्रान्तरेऽस्मिन् भागो । जीवस्यात्मनः। भवति-अभिन्नपूर्वो [ह] शब्दस्यावधारणार्थत्वाद्वयवहितो. पन्यासाचाभिन्नपूर्व एव । शान्थिरिव ग्रन्थि?ःखेनोद्वेष्टयमानत्वात् । एवं जिना ब्रुवत एवं तीर्थकराः प्रतिपादयन्तीति । उक्तं च तत्समाय:
गंट्ठि त्ति सुदुब्भेउ कक्खडघणरूढगूढगंढि व्व । जीवस्स कम्मजणिओ घणरागद्दोसपरिणामो ।। इति ।।३२।। भिन्नामि तंमि लामो जायइ परमपयहेउणो नियमा।
सम्मत्तस्स पुणो तं बंधेण न बोलइ कयाइ ॥३३॥ भिशेऽपूर्वकरणेन विद्यारित । तस्मिन् ग्रन्थावात्मनि लाभः प्राप्तिर्जायते संपद्यते। परमपद. हेतो क्षकारणस्य । नियमालियमेनावश्यंभावतायेत्यर्थः । कस्य ? सम्यक्त्वस्य वक्ष्यमाणस्वरूपस्य ।
इस प्रकार प्रसंगप्राप्त कर्मकी संक्षेपमें प्ररूपणा करके अब आगेकी दो गाथाओंमें प्रकृतको योजनाके लिए यह कहा जाता है
इस प्रकारकी स्थितिवाले उस कर्मकी स्थितिमें जब किसी प्रकारसे घर्षण और घोलन (घूर्णन ) के निमित्तसे एक कोडाकोडीको छोड़कर शेष सब कोड़ाकोडियोंको क्षीण कर दिया जाता है तथा शेष रही उस एक कोडाकोड़ी मात्र स्थिति में भी जब स्तोक मात्र-पल्योपमके असंख्यातवें. भागकी और भी-क्षोण कर दिया जाता है। इस बीचमें ग्रन्थि अभिन्नपूर्व ही रहती है, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं ॥३१-३२॥
आगे यह सूचित किया जाता है कि सम्यक्त्वकी प्राप्ति इस ग्रन्थिके भेदे जानेपर ही सम्भव है
उस ग्रन्थिके भेदे जानेपर नियमसे मोक्षके कारणभूत सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनसे युक्त हुआ जीव उस ग्रन्थिका कर्मबन्धके द्वारा कभी अतिक्रमण नहीं करता है- उत्कृष्ट स्थितिसे युक्त कर्मोंको नहीं बांधता है।
विवेचन-ग्रन्थिका अर्थ गांठ होता है। जिस प्रकार किसी वृक्षविशेषको कठोर व सघन सूखी गांठ तोड़ने के लिए अतिशय कष्टप्रद होती है, अथवा रस्सी आदिमें लगायो गयी दृढ़तर गांठ खोलने में क्लेशकर होती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी सहायतासे मोहनीयकर्मके द्वारा निर्मित जो दृढ़तर राग-द्वेषरूप परिणाम अतिशय दुर्भेद्य होता है उसे यहां अन्यिके समान दुर्भेद्य होनेके कारण प्रन्थि कहा गया है। पूर्व में (२८-२९ ) जो ज्ञानावरणादि कर्मोंको उत्कृष्ट स्थिति निर्दिष्ट की गयो है उसे अधःकरण परिणामको प्राप्त यह जोव जब घर्षण
१. अ एक्क पमोत्तण । २. अ कोटोकोट्यः । ३. अ तिय । ४. थेवमिते । ५. कत्थंतरम्मि । ६. म बिन्ति । .