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सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा आयवउज्जोयविहायगई' य तसथावराभिहाणं च ।
बायरसुहुमं पज्जत्तापज्जत्तं च नायव्वं ॥२२॥ आतपनाम यदुदयादातपवान् भवति पृथिवीकाये आदित्यमण्डलादिवत् । उद्योतनाम यदुदयादुद्योतवान् भवति खद्योतकादिवत् । विहायोगतिनाम यदुदयाच्चंक्रमणम् । इदं च द्विविध प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । प्रशस्तं हंस-गजादीनाम्, अप्रशस्तमुष्ट्रादीनामिति । त्रसनाम यदुदयाच्चलनं स्पन्दनं च भवति । त्रसत्वमेवान्ये । स्थावराभिधानं चेति स्थावरनाम यदुदयादस्पन्दनो भवति । स्थावर एवान्ये। चः समुच्चये। बादरनाम यदुदयाबादरो भवति, स्थूर इत्यर्थः। इन्द्रियगम्य इत्यन्ये । सूक्ष्मनाम यदुदयात्सूक्ष्मो भवति अत्यन्तश्लक्ष्णः, अतीन्द्रिय इत्यर्थः। पर्याप्तकनाम यदुदयादिन्द्रियादिनिष्पत्तिर्भवति। अपर्याप्तकनाम उक्तविपरीतं यदुदयात्संपूर्णपर्याप्त्यनिवृत्तिन त्वाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्त्यनिवृत्तिरपि। यस्मादागामिभवायुष्कं बध्वा नियंत सर्व एव दोहनः, तच्चाहार-शरारेन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तानामेवै बध्यत इति ॥२२॥
१८ आतप, १९ उद्योत, २० विहायोगति, २१ त्रस, २२ स्थावर नामक, २३ बादर, २४ सूक्ष्म, २५ पर्याप्त और २६ अपर्याप्त , इस प्रकार यहाँ तक उसके २६ भेद हो जाते हैं।
विवेचन-इन आतप आदिका पृथक् स्वरूप इस प्रकार है
जिसके उदयसे पृथिवीकायमें जीवका शरीर सूर्यमण्डलके समान आतपसे युक्त होता है उसे आतप नामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे जुगुनू आदिक समान जीवका शरीर उद्योतसे युक्त होता है उसे उद्योत नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे जीवका गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म कहलाता है। वह प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें प्रशस्त विहायोगतिका उदय हंस और हाथी आदिके तथा अप्रशस्त विहायोगतिका उदय ऊंट आदिके हुआ करता है। जिसके उदयसे चलना और परिस्पन्दन होता है वह त्रस नामकर्म कहलाता है। अन्य आचार्यों के मतानुसार इस त्रस नामकर्मके उदयसे कवल त्रसत्व-त्रस अवस्था हो-होतो है। जिसके उदयसे प्राणो स्पन्दनसे रहित होता है उसे स्थावर नामकर्म कहा जाता है। अन्य आचायों के अभिमता.नुसार इस स्थावर नामकमके उदयसे जोव स्थावर-स्थिर स्वभाववाला-ही होता है। जिसके उदयसे जोवका शरीर बादर (स्थूल ) होता है उसे बादर नामकर्म कहते है। अन्य आचार्यों के अभिप्रायानुसार जिसके उदयसे जाव इन्द्रियगाचर होता है उसे बादर नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे जीवका शरीर सूक्ष्म, अर्थात् अतिशय श्लक्ष्ण या अतीन्द्रिय होता है उसका नाम सूक्ष्म नामकर्म है। जिसके उदयस इन्द्रिय आदिकी उत्पत्ति होतो है उसे पयाम नामकर्म कहत ह। इसके विपरीत जिसके उदय से समस्त पर्याप्तियोंका निवृत्ति ( रचना या उत्पत्ति ) नहीं होता है उसे अपर्याप्त नामकर्म कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि अपर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तियोको निवृत्ति तो सम्भव है, पर समस्त पर्याप्तियोंका निवृत्ति उसके उदयमें सम्भव नही है। इसका कारण यह है कि सब ही प्राणी आगामी भवको
आयुको बाँध करके ही मरते हैं और उस आयुका बन्ध आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवोंके हो होता है ॥२२॥
अब उसके प्रत्येक आदि आगेके दस भेदोंका निर्देश किया जाता है१. अ उज्जोवविहायगती । २. अ बायरमहुत्तमपज्जत्ता० । ३. अ तथाहारशरीरेंद्रियपर्याप्तानामेव ।