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सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा भवति । संहनननाम वज्रऋषभनाराचादिसंहनननिमित्तम्। संस्थाननाम समचतुरस्रादिसंस्थानकारणम् । चः समुच्चय इति गाथार्थः ॥२०॥
तह वन्नगंधरसफासनामगुरुंलहू य बोद्धव्वं ।
उवधायपराघायाणुपुविऊसासनामं च ॥२१॥ तथा वर्णनाम यदयात्कृष्णादिवर्णनिवृत्तिः। एवं गन्ध-रस-स्पर्शेष्वपि स्वभेदापेक्षया भावनीयमिति । अगुरुलघु च बोद्धव्यं अत्रातृस्वारदीर्घत्वेऽलाक्षणिके सुखोच्चारणार्थे तूपन्यस्ते । तत्रागुरु. साचि, सादि या स्वाति, कब्ज, वामन और हण्ड संस्थानके भेदसे छह प्रकारका है। जिसके उदयसे प्राणियोंके समचतुरस्रसंस्थान उत्पन्न होता है उसे समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म कहते हैं। समचतुरस्रसंस्थान वह कहलाता है जिसमें प्राणियोंके शरीरके अवयव चारों दिशाओंमें सामुद्रिक शास्त्र में निर्दिष्ट प्रमाणसे यक्त होते हैं-हीनाधिक प्रमाणवाले नहीं होते। जिसके उदयसे न्यग्रोध ( वटवृक्ष ) के आकारमें नाभिके ऊपरके सब अवयव समचतुरस्रसंस्थानरूप समुचित प्रमाणसे यक्त होते हैं, पर नीचेके अवयव ऊपरके अवयवोंके अनुरूप नहीं होते हैं उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे नाभिके नीचेके सब अवयव समचतुरस्रसंस्थानस्वरूप सुन्दर, पर ऊपरका भाग तदनुरूप नहीं होता है उसे साचि, सादि या स्वातिसंस्थान नामकर्म कहा जाता है। सादि या साचिका अर्थ शाल्मली वृक्ष होता है। उसके आकारमें शरीरके अवयवोंकी रचना होनेसे इस संस्थानको साचि या सादि संस्थान कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक (८, ११, ८) और धवला ( पु. ६, प.७१ ) आदिमें जहाँ इसका उल्लेख 'स्वातिसंस्थान' के नामसे किया गया है वहां 'स्वाति' से सांपकी बामी या शाल्मली वृक्षको भी ग्रहण किया गया है। अभिप्राय प्रायः वही रहा है। जिसके उदयसे शिर, ग्रीवा व हाथ-पांव आदिके यथोक्त प्रभाणमें होनेपर भी वक्ष, उदर व पीठ आदि तदनुरूप न होकर प्रचुर पुद्गलके संचयसे युक्त होते हैं उसे कुब्जसंस्थान नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे वक्ष और पेट आदि योग्य प्रमाणमें होते हैं, पर हाथ-पांव छोटे होते हैं वह वामनसंस्थान नामकर्म कहलाता है। जिसके उदयसे शरीरके सब ही अवयव ठीक प्रमाणमें न होकर बेडौल होते हैं उसका नाम हण्डसंस्थान है ॥२०॥
स प्रकार नामकर्मके प्रथम आठ भेदोंका निर्देश करके अब आगे उसके वर्णादि अन्य नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है
९ वर्ण, १० गन्ध, ११ रस, १२ स्पर्श, १३ अगरुलघु, १४ उपघात, १५ पराघात, १६ आनुपूर्वी और १७ उच्छ्वास ये उसके आगेके अन्य नौ भेद हैं।
विवेचन-इनका पृथक्-पृथक् स्वरूप इस प्रकार है-जिसके उदयसे शरीरमें कृष्ण आदि वर्णों की रचना होती है उसे वर्ण नामकर्म कहते हैं। वह कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्लके भेदसे पांच प्रकारका है । इनमें जिसके उदयसे शरीरमें कृष्णवर्णका प्रादुर्भाव होता है वह कृष्णवर्ण नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष नील आदि चार नामकर्मों का भी स्वरूप समझ लेना चाहिए। जिसके उदयसे शरीरमें गन्धका प्रादुर्भाव होता है उसे गन्ध नामकर्म कहा जाता है दो प्रकारका है-सुरभिगन्ध नामकर्म और असुरभिगन्ध नामकर्म । जिसके उदयसे शरीरमें सुरभिगन्ध ( सुगन्ध ) का प्रादुर्भाव होता है उसे सुरभिगन्ध और जिसके उदयसे शरीरमें असुरभिगन्ध ( दुर्गन्ध ) का प्रादुर्भाव होता है उसे असुरभिगन्ध नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे शरीरमें रसका प्रादुर्भाव होता है उसे रस नामकर्म कहा जाता है। वह तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल