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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[१९ - स्त्रीपुरुषनपुंसकवेदत्रिकं चैव भवति ज्ञातव्यम्, नोकषायवेद्यतयेति भावः। तत्र वेद्यत इति वेदः-स्त्रियः स्त्रीवेदोदयात्पुरुषाभिळाषः, पुरुषस्य पुरुषवेदोदयात्स्यभिलाषः, नपुंसकस्य तु नपुंसकवेदोदयादुभयाभिलाषः। हास्यं रतिः अरतिर्भयं शोको जुगुप्सा चैव षट्कमिति-तत्र सनिमित्तमनिमित्तं वा हास्यं प्रतीतमेव । बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीतिः रतिः । एतेष्वेवाप्रीतिररतिः। भयं त्रासः। परिदेवनादिलिङ्गं शोकः। चेतनाचेतनेषु वस्तुषु व्यलोककरणं जुगुप्सा। यदुदयादेते हास्यादयो भवन्ति ते नोकषायाख्याः मोहनीयकर्मभेदा इति भावः। नोकषायता चैतेषामाद्यकषायत्रयविकल्पानुवतित्वेन । तथाहि-न क्षीणेषु द्वादशस्वमीषां भाव इति ॥१८॥
आउं च एत्थ कम्म चउन्विहं नवरं होइ नायव्यं ।
नारयतिरियनरामरगईभेयविभागओ भणि ॥१९॥ आयुष्कं च प्रानिरूपितशब्दार्थम्, अत्र प्रक्रमे । क्रियत इति कर्म । चतुर्विधं चतुःप्रकारम् । भवति ज्ञातव्यं । नवरमिति निपातः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः । चातुविध्यमेवाह-नारक-तिर्यङ्न
विवेचन--'नोकषाय' में 'नो' का अर्थ ईषत् है। तदनुसार जिनका वेदन ईषत् कषायके रूपसे हुआ करता है उन्हें नोकषाय वेदनीय कहा जाता है । अथवा 'नो' को साहचर्यका बोधक मानकर यह भी कहा जा सकता है कि जो प्रथम बारह कषायोंके साथ रहा करती हैं व उन अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप बारह कषायोंके क्षीण हो जानेपर जिनका सदभाव नहीं पाया जाता है वे नोकषाय कहलाती हैं । उन स्त्रीवेदादि नोकषायके रूप में जिसका वेदन किया जाता है उसे नोकषायवेदनीय समझना चाहिए। उसके नौ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा। जिसके उदय से स्त्रोके पुरुषकी अभिलाषा हुआ करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जिसके उदयसे पुरुषके स्त्रीकी अभिलाषा हुआ करती है उसे पुरुषवेद कहा जाता है । जिसके उदयसे स्त्री व पुरुष उभयकी अभिलाषा हुआ करती है उसका नाम नपुंसकवेद है। जिसके उदयसे प्राणीके किसी निमित्तको पाकर या बिना निमित्तके भी हंसी आती है वह हास्य कहलाता है। जिसके उदयसे बाह्य व अभ्यन्तर वस्तुओंमें प्रीति हुआ करती है उसे रति और जिसके उदयसे उनमें अप्रोति ( द्वेष ) हुआ करती है उसे अरति कहा जाता है। जिसके उदयसे किसो निमित्तके मिलनेपर या बिना किसी निमित्तके ही प्राणी अपने संकल्पके अनुसार डरा करता है उसे भय नोकषाय कहा जाता है। जिसके उदयसे प्राणी किसी इष्ट जनके वियोग आदिमें अनेक प्रकारसे विलाप करता है वह शोक नोकषाय कहलाती है। जिसके उदयसे चेतन व अचेतन वस्तुओंमें घृणा उत्पन्न होती है उसे जुगुप्सा नोकषाय कहा जाता है। इस प्रकार पूर्वोक्त सोलह कषाय और नो नोकषाय ये सब मिलकर पचीस भेद चारित्र मोहनीय कर्मके हो जाते हैं ॥१८॥
अब क्रमप्राप्त आयुकर्मके भेदोंका निर्देश किया जाता है____यहां आयुकर्म चार प्रकारका जानना चाहिए। वह नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन गतिभेदोंके विभागसे चार प्रकारका कहा गया है।
विवेचन-जिसके उदयसे ऊर्ध्वगमन स्वभाववाले जीवका नारक पर्याय में अवस्थान होता है उसे नारकायु, जिसके उदयसे उसका तिथंच पर्याय अवस्थान होता है उसे तिर्यगायु, जिसके उदयसे उसका मनुष्य पर्यायमें अवस्थान होता है उसे मनुष्यायु और जिसके उदयसे उसका देव
१. भ गति । २. अ भणियं ।