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आयुष्कं नाम गोत्रम् — तत्रेति याति वेत्यायुरननुभूतमेत्यनुभूतं च यातीत्यर्थः । सर्वमपि कर्मैवंभूतम्, तथापि प्रक्रान्तभवप्रबन्धाविच्छेदादायुष्कमेव गृह्यते, अस्ति च विच्छेदो मिथ्यात्वादिषु । तथा गत्यादिशुभाशुभनमनाम्नामयतीति नाम । तथा गां वाचं त्रायत इति गोत्रम् रूढिषु हि क्रिया कर्म व्युत्पत्यर्था । नार्थक्रियार्था इत्युच्चैर्भावादिनिबन्धनमदुष्टमित्यर्थः । चरमं पुनः पर्यन्तवति, तत्पुनरन्तरायं भवति, दानादिविघ्नोऽन्तरायस्तत्कारणमन्तरायमिति । मूलप्रकृतय
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श्रावकप्रज्ञप्तिः
विवेचन - प्रकृत सम्यग्दर्शन जीवका परिणाम है जो कर्मके क्षय-उपशम आदिके भेदसे तीन प्रकारका है, यह पहले (गा. ७) कहा जा चुका है । इससे सिद्ध है कि उस सम्यग्दर्शनका सम्बन्ध जीव और कर्मके संयोगके साथ है । इसलिए उक्त सम्यग्दर्शनके परिज्ञानके लिए ग्रन्थकार प्रथमतः कर्मको प्ररूपणाको उपयोगी समझकर पहले कर्मका निरूपण कर रहें हैं, तत्पश्चात् वे यथाक्रमसे उक्त सम्यग्दर्शनके उन भेदोंका निरूपण करेंगे, इसे उन्होंने गा. ८ में स्पष्ट कर दिया है । जो तीनों कालोंमें द्रव्य व भाव प्राणोंसे जीता है वह जीव कहलाता है । वह अनादि व अनिधन होकर ज्ञानावरणादि कर्मोंसे संयुक्त है। उसके इस कर्मबन्धके कारण मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं। कर्म मूलमें आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । वस्तु सामान्य विशेषात्मक हैं । उनमें जो विशेष ( भेद ) को विषय करता है उसे ज्ञान और जो सामान्य ( अभेद ) को विषय करता है उसे दर्शन कहा जाता है। इनमें जो कर्म ज्ञानका आवरण करता है उसका नाम ज्ञानावरण और जो दर्शनका आवरण करता है उसका नाम दर्शनावरण कर्म है। जिसका वेदन सात ( सुख ) ओर असात ( दुख ) रूपसे किया जाता है वह वेदनीय कर्म कहलाता है । यद्यपि इस निरुक लक्षण के अनुसार सब ही कर्म वेदनीय ठहरते हैं, फिर भी इस ' वेदनीय' संज्ञाको कर्मविशेषमें रूढ़ मान लेनेसे कुछ विरोध प्रतोत नहीं होता । लोकव्यवहार में भी ऐसे प्रयोग देखे जाते हैं । जैसे - पंकज | 'पंकाज्जातम् इति पंकजम्' इस निरुक्ति के अनुसार 'पंकज' का अर्थ कीचड़से उत्पन्न हुआ होता है। इस प्रकारसे जहाँ पंकज ( कमल) कीचड़ से उत्पन्न है वहीं अन्य भी कितने ही वनस्पति उस कीचड़से उत्पन्न होते ऐसी अवस्थामें उक्त लक्षण यद्यपि अतिव्याप्त होता है तो भी 'पंकज' को कमलमें रूढ़ मान लेनेसे 'कुछ दोष नहीं माना गया है । यही अभिप्राय प्रकृत 'वेदनीय' कर्मके विषय में भी ग्रहण करना चाहिए । जो आत्माको मोहित करता है--सत्-असत् या हेय उपादेय के विवेकसे विमुख करता है— उसे मोहनी कहते हैं । 'एति याति वा इति आयु:' इस निरुक्तिके अनुसार जो कर्म अननुभूत होकर आता है या अनुभूत होकर जाता है - निर्जीर्ण होता है-उसका नाम आयु हैं । उपर्युक्त 'वेदनीय' के समान उस 'मोहनीय' संज्ञाको भी कर्मविशेष (पांचवें कर्म) में रूढ़ समझना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिसके आश्रयसे जीवके भवप्रबन्धका विच्छेद नहीं हो पाता — जन्मसे मृत्यु पर्यन्त विवक्षित भवमें ही रहना पड़ता है-वह आयुकर्म कहलाता है । 'नामयतीति नाम' इस निरुक्तिके अनुसार जो कर्म शुभ या अशुभ गति आदि पर्यायोंके अनुभवनके प्रति नमाता है उसे नामकर्म कहा जाता है । 'गां वाचं त्रायते इति गोत्रम्' इस निरुक्ति के अनुसार यद्यपि गोत्रका अर्थं वचनका रक्षण करनेवाला होता है, तो भी रूढ़िमें क्रियाका प्रयोजन कर्मव्युत्पत्ति है, अर्थक्रिया नहीं; ऐसा मानकर 'गोत्र' संज्ञाको भी कर्मविशेष में रूढ़ समझना चाहिए । अथवा 'गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्देः आत्मा यस्मात् तत् गोत्रम्' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके आश्रयसे जीव ऊंच या नीच शब्दों से कहा जाता है उसका नाम गोत्र है । इस प्रकार उसका 'गोत्र' यह नाम सार्थक भी कहा जा सकता है । अथवा जो पर्यायविशेष ऊंच या नीच कुलमें उत्पत्तिको प्रकट करनेवाली है उसका