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श्रावकप्रज्ञप्तिः
उन्होंने वैदिक साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया था । सौभाग्य से एक बार उन्हें याकिनी महत्तरा नाम की विदुषी साध्वी के दर्शन का सुयोग प्राप्त हुआ। उसके साथ जो उनकी धार्मिक चर्चा हुई उससे वे बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार से वे वैदिक सम्प्रदाय को छोड़कर जैनधर्म में दीक्षित हो गये। उनके दीक्षादाता गुरु जिनदत्त सूरि रहे हैं । हरिभद्र सूरि विरचित आवश्यकसूत्र की टीका की समाप्तिसूचक अन्तिम पुष्पिका में उन्हें श्वे. आचार्य जिनभट के निगदानुसारी और विद्याधरकुलतिलक आचार्य जिनदत्त का शिष्य निर्दिष्ट किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि हरिभद्र सूरि के विद्यागुरु जिनभट और दीक्षागुरु जिनदत्त रहे हैं। संस्कृत भाषा के तो वे पूर्व में ही अधिकारी विद्वान् रहे हैं। पश्चात् जैनधर्म में दीक्षित हो जाने पर उन्होंने प्राकृत का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था। उनकी जैनागमविषयक कुशलता स्तुत्य रही है। इतर दर्शनों का अध्ययन उनका पूर्व में ही रहा है। इस प्रकार प्रखर प्रतिभा से सम्पन्न वे बहुश्रुत विद्वान् हुए । संस्कृत और प्राकृत के अधिकारी विद्वान् होने से उन्होंने इन दोनों ही भाषाओं में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। दर्शन, साहित्य, न्याय और योग जैसे अनेक विषयों में उनकी प्रतिभा निर्बाध गति से संचार करती रही है । यही कारण है जो उनके द्वारा विरचित इन सभी विषयों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। । मूल ग्रन्थों की रचना के साथ उन्होंने आवश्यकसूत्र, प्रज्ञापना और दशवैकालिक आदि अनेक आगम ग्रन्थों पर टीका भी की है। इन टीकाओं में उन्होंने सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं, जिनसे उनकी बहुश्रुतता का परिचय सहज में मिल जाता है ।
याकिनी महत्तरा को उन्होंने अपनी द्वितीय जन्मदात्री धर्ममाता माना है। उसके इस महोपकार की स्मृतिस्वरूप उन्होंने प्रायः सभी स्वनिर्मित ग्रन्थों और टीकाओं के अन्तिम पुष्पिका वाक्यों में अपने को श्वेताम्बर मतानुयायी याकिनी महत्तरा का सूनु निर्दिष्ट करके कृतज्ञता का भाव व्यक्त किया है।
उनका समय ई. सन् ७०० से ७७० माना जाता है। कुवलयमाला (शक सं. ७००, ई. सन् ७७८) के कर्ता उद्योतन सूरि के वे कुछ समकालीन रहे हैं । उनके द्वारा निर्मित कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ और टीकाएँ इस प्रकार हैं
१. धर्मसंग्रहणी
२. पंचाशकप्रकरण
३. पंचवस्तुकप्रकरण ४. धर्मबिन्दुप्रकरण
1. अष्टकप्रकरण ६. षोडशकप्रकरण
१. नन्दीसूत्र २. पाक्षिक सूत्र
३. प्रज्ञापना सूत्र
मूल ग्रन्थ
७. सम्बोधिप्रकरण
८. उपदेश पद
९. षड्दर्शनसमुच्चय १०. शास्त्रवार्तासमुच्चय ११. अनेकान्त जयपताका १२. अनेकान्तवादप्रवेश
टीका ग्रन्थ
४. आवश्यक सूत्र ५. दशवैकालिक
६. पंचसूत्र
१३. लोकतत्त्वनिर्णय १४. सम्बोधिसप्ततिप्रकरण
१५. समराइच्चकहा १६. योगविंशिका १७. योगदृष्टिसमुच्चय १८. योगबिन्दु
७. अनुयोगद्वार
८. ललितविस्तरा
९. तत्त्वार्थवृत्ति
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१. श्रीहरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः, पृ. १-२३ ( जैन साहित्यशोधक समाज, पूना) जैन साहित्य संशो, भाग १, अंक १, पृ. ५८ तथा 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग ३, पृ. ३५९ ।