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५. पाठान्तर
ग्रन्थकारके समक्ष कुछ पाठभेद भी रहे हैं । यथा
गाथा ३११ में द्वारगाथा २९५ में उपयुक्त 'पंच' पदके स्थानमें 'किं च' पाठ-भेद इस प्रकार सुझाया गया है-पाठंतरमो हवा. किंच॥ इसे उक्त गाथा ३११ की टीकामें इस प्रकारसे स्पष्ट किया गया हैपाठान्तरमेवाथवा द्वारगाथायाम् । तच्चेदम् "किंच' सम्वति माणिऊणं इत्यादिग्रन्थान्तरापेक्षमन्यत्रेति ।
इससे यह निश्चित प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थमें ग्रन्थान्तरगत अन्य भी कितनी ही गाथाओंको ग्रन्यनाम निर्देशके बिना सम्मिलित कर लिया गया है। उक्त द्वारगाथा ( २९५) इसी प्रकारकी है।
इसी प्रकार टीकाकारके समक्ष भी मूलग्रन्थगत कुछ पाठभेद रहा है। उन्होंने गाथा २५४ में एक पाठभेद इस प्रकार प्रकट किया है-पाठान्तरं योगत्रिकनिबन्धना निवृत्तिर्यस्मात् संगतार्थमेवेति । इस गाथामें मूलमें 'पवित्तीओ' पाठ है जो अर्थकी दृष्टिसे संगत नहीं प्रतीत होता। इसीलिए सम्भवतः टीकामें 'पवित्तीभोपाठके स्थानमें 'निवित्तीओ' इस पाठान्तरकी सूचना करके अर्थको संगति बैठायी गयी है।
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