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श्रावकज्ञप्तिः
[४०१___ इय एवमुक्तेन प्रकारेणानुभवयुक्तिहेतुसंगतमिति-अत्रानुभवः संवेदनम्, युक्तिरुपपत्तिहेतुरन्वय-व्यतिरेकलक्षणः, एभिर्घटमानकम् । हंदोत्युपप्रदर्शने । एवं गृहाण नानिष्ठितार्थानां सिद्धानामस्ति सुखं विद्यते सातम् । श्रद्धेयं प्रतिपत्तव्यम् । तथा जिनचन्द्रागमाच्चाहद्वचनाद्वेति ॥४००॥ ____ अधुना आचार्योऽनुद्धतत्वमात्मनो दर्शयन्नाह, अथवा प्रकरणविहितार्थ विशिष्टश्रमणपर्यायप्राप्यं सक्रियया सर्वेषामासन्नीकृत्यात्मनोऽपराधस्थानमाशंक्याह
जं उद्धियं सुयाओ पुव्वाचरियकयमहव समईए।
खमियव्यं सुयहरेहि तहेव सुयदेवयाए य ॥४०१॥ यदुद्धृतं सूत्रात्सूत्रकृतादेः कालान्तरप्राप्यं पूर्वाचार्यकृतं वा यदुद्धृतं अथवा स्वमत्या तत्क्षन्तव्यं श्रुतधरैस्तथैव श्रु तदेवतया च क्षन्तव्यमिति वर्तते ॥४०१॥
इति दिक्प्रदा नाम श्रावकप्रज्ञप्तिटीका समाप्ता।
इस प्रकार कृतकृत्य हुए उन सिद्धोंका सुख अनुभव, युक्ति और अन्वय-व्यतिरेकरूप हेतुसे संगत है-घटित होता है तथा जिन-चन्द्रागम-सर्वज्ञ जिनप्रणीत परमागम-से जाना जाता है, ऐसी श्रद्धा करना चाहिए ॥४००॥
अब अन्तमें ग्रन्थकार अपनी निरभिमानताको प्रकट करते हुए, अथवा श्रमणपर्यायसे प्राप्य इस प्रकरण में ग्रथित अर्थको सक्रिया द्वारा सबके निकट करके अपने अपराधस्थानकी आशंकासे यह कहते हैं
इस श्रावक प्रज्ञप्ति ग्रन्थमें जो श्रुतसे उद्धृत किया गया है, अथवा पूर्वाचार्यकृत है, अथवा अपनी बुद्धिसे जो कहा गया है उसके विषयमें श्रुतके धारक-परमागमके ज्ञाता-तथा श्रुतदेवता भी क्षमा करे ॥४०१॥
१.प प्रति के अनुसार इसके आगे इस प्रति में 'कृतिः सितपटाचार्य जिनभद्र [3] पादसेवकस्याचार्यहरिभद्रस्येति' यह वाक्य भी उपलब्ध होता है ।