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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[ ३३९ - प्रत्याख्याने स इति । अन्यत्र तु विशेषे स्वयंभूरमणजलधिमत्स्यादौ । त्रिविधं त्रिविधेन कुर्वतः को दोषः ? न कश्चिदिति-परिहारान्तरमाह ॥३३४॥
पुत्ताइसंतइनिमित्तमित्तमेगारसिं पवनस्स ।
जंपंति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहं पि ॥३३५॥ पुत्रादिसन्ततिनिमित्तमात्रम्-प्रबजितोऽस्य पितेत्येवं विज्ञाय परिभवन्ति केचन तत्सुतम्, अप्रवजिते तु न, एतावद्भिश्चाहोभिरसौ मानुषीभवत्येवेति । तत ऊध्वं गुणमुपलभ्य एतनिमित्तं प्रविजिषुरपि कश्चित्पर्यन्तवतिनीमुपासकप्रतिमा प्रतिपद्यत इति तदाह-एकादशी प्रपन्नस्य श्रवणभूताभिधानामुपासकप्रतिमामाश्रितस्य । जल्पन्ति केचन गृहिणो दीक्षाभिमुखस्य त्रिविधमपि प्रत्याख्यानमिति ॥३३५।।
प्रत्याख्यानका तीन प्रकारसे करनेका निर्देश किया गया है ? इस शंकाका समाधान करते हुए यहां यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्याख्यान नियुक्तिमें जो अनुमतिका निषेध किया गया है वह अपने व्यवहार कार्यको लक्ष्यमें रखकर किया गया है, क्योंकि पारम्भ कार्य करते हुए गृहस्थको कभीकभी अनुमति देना आवश्यक हो जाता है। किन्तु जो गृहस्थके व्यवहारका विषय नहीं है वहां गृहस्थ कृत, कारित व अनुमत तीनों प्रकारके सावद्यका मन, वचन व काय तीनों प्रकारसे प्रत्याख्यान करता है। उदाहरणार्थ स्वयम्भूरमण समुद्रवर्ती मत्स्यादि गृहस्थके व्यवहारके विषयभूत नहा है, अतः ऐसे विषयमें वह अनुमतिके साथ तीन प्रकारक सावद्यका तीनो.प्रकारसे त्याग करता है । इस प्रकार उक्त व्याख्याप्रज्ञप्तिके विशेष आशयके समझ लेनेपर प्रकृत प्रत्याख्याननियुक्तिके इस कथनसे कुछ भी विरोध नहीं रहता। अथवा प्रत्याख्याननियुक्तिमें सामान्य प्रत्याख्यानकी विवक्षामें अनुमतिका निषेध किया गया है, विशेष प्रत्याख्यानमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके समान ही प्रत्याख्याननियुक्तका अभिप्राय समझना चाहिए ॥३३४।।
आगे उपर्युक्त शंकाका समाधान अन्य प्रकारसे किया जाता है
जो गृहस्थ दोक्षाके अभिमुख होता हुआ पुत्रादिके निमित्त मासे ग्यारहवीं प्रतिमाको स्वीकार करता है उसके तीनों प्रकारका प्रत्याख्यान होता है, इस प्रकारसे अन्य कितने ही उक्त शंकाके समाधानमें कहते हैं।
विवेचन-पूर्वमें ( ३३२ ) में जो यह शंका उठायो गयी थी कि देशव्रती गृहस्थके 'न करता है, न कराता है और न अनुमति देता है' इस प्रकारसे तीन प्रकारका प्रत्याख्यान कैसे सम्भव है ? इसका समाधान यद्यपि इसके पूर्व किया जा चुका है, फिर भी प्रकारान्तरसे यहां उसका समाधान करते हुए यह कहा गया है कि 'पुत्र आदिके निमित्तसे यह दोक्षित हुआ है' इस प्रकार कहते हुए कोई उसके पुत्रको लज्जित न करे, इस विचारसे जिस गृहस्थने मुनिदोक्षाके अभिमुख होकर भी उसे स्वीकार न कर श्रमणभूत-श्रमणके समान अनुष्ठानवाडी-ग्यारहवीं प्रतिमाको स्वीकार किया है उसके अपने विषयमें भी अनुमतिका निषेध होता है-वह किसी भी व्यवहार कार्यमें अपनी अनुमति नहीं देता। इस प्रकार उक्त गृहस्थके कृत, कारित व अनुमत तीन प्रकारके सावद्यका प्रत्याख्यान मन, वचन व काय इन तीनोंसे बन जाता है ।।३३५।।
१. अ पुत्रातिसंतइणिमित्तमेत्तमेकादसि । २. अ इत्याह ।