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गृहिप्रत्याख्यानभेदाः प्रीणि गुणव्रतानि उक्तलक्षणान्येव यावत्कथिकानोति सकृद्गृहीतानि यावज्जीवमपि भावनीयानि, न तु नियोगतो यावज्जीवमेवेति गुरवो व्याचक्षते । प्रतिचातुर्मासकमपि तद्ग्रहणम्, वृद्धपरंपरायाततया सामाचायु पलब्धः । शिक्षापदव्रतानि पुनरित्वराणि-शिक्षा अभ्यासस्तस्याः पदानि स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापरवतानि, इत्वराणोति तत्र प्रतिदिवसानुष्ठेये सामायिकदेशावकाशिके पुनः पुनरुच्चार्येते इति भावना। पौषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतविवसानुष्ठेयो, न प्रतिदिवसाचरणीयाविति ॥३२८॥
श्रावकधर्मे च प्रत्याख्यानभेदानां सप्त चत्वारिंशदधिकं भङ्गशतं भवति, चित्रत्वाद्देशविरतेः। तदाह
सीयालं भंगसयं गिहिपच्चक्खाणभेयपरिमाणं'।
तं च विहिणा इमेणं भावेयव्वं पयत्तेणं ।।३२९।। सप्तचत्वारिंशदधिकं भंगशतं गृहिप्रत्याख्यानभेदानां परिमाणमियत्ता। तच्च विधिना अनेन वक्ष्यमाणेन भावयितव्यं प्रयत्ने
भरिति ॥३२॥ विधिमाह
तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्निक्किक्का य हुति जोगेसु ।
ति दु एक्कं ति दु एक्कं ति दु एक्कं चेव करणाई ॥३३०॥ गाथा २ में कहा जा चुका है )। उसके धर्ममें जिन पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षापदोंका निरूपण पीछे किया जा चुका है (गा. ६) उनमें पांच अणुव्रत और तीन गुणवत तो ऐसे हैं जिन्हें एक बार ग्रहण करके जीवनपर्यन्त पाला जाता है । यहां टीकामें गुरुओंको व्याख्याके अनुसार इतना विशेष कहा गया है कि उनका परिपालन जीवनपर्यन्त भी किया जाता है। पर यह नियम नहीं है कि जीवनपर्यन्त ही उनका पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि वृद्धपरम्परागत सामाचारोके अनुसार उनका ग्रहण प्रत्येक चातुर्मासमें भी सम्भव है। परन्तु शिक्षापदोंका परिपालन जीवनपर्यन्त नहीं होता, उनका पालन नियत समयमें सम्भव है। यथा-सामायिक और देशावकाशिक इन दो शिक्षापदोंका अनुष्ठान प्रतिदिन किया जाता है व पुनः-पुनः उनका उच्चारण किया जाता है-प्रतिदिन उन्हें धारण किया जाता है। पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग ये दो शिक्षापद प्रतिनियत दिनोंमें-जैसे अष्टमी व चतुर्दशी आदिमें-अनुष्ठेय हैं, उनका आचरण प्रतिदिन नहीं किया जाता। अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षापदोंका निरूपण पूर्वमें विस्तारसे किया जा चुका है ॥३२८॥
अब श्रावकधर्ममें प्रत्याख्यानके भेदोंको संख्याका निर्देश किया जाता है
गृहस्थके प्रत्याख्यान सम्बन्धी भेदोंका प्रमाण एक सौ सैंतालीस भंगरूप है। उसका विचार आगे कही जानेवालो इस विधिसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए ॥३२९।।
वह विधि इस प्रकार है
काय, वचन और मनके व्यापारस्वरूप योगोंमें तोन त्रिक (३), तीन द्विक (२) और तीन एक-एक तथा मन, वचन और कायरूप करण तोन, दो, एक, तोन, दो, एक, तीन, दो और एक होते हैं।
१. अ परिमाणा। २. म दधिकं शतं । ३. अति नि एक्कं त दु एक्कं ति चेव कारणाए।
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