________________
- ३१७]
प्रथमशिक्षापदेऽतिचारनिरूपणम्
१८९
अनिरीक्ष्य चक्षुषा। अप्रमृज्य च मृदुवस्त्रान्तेन। स्थण्डिले कल्पनीयभूभागे। स्थानादि कायोत्सर्ग-निषीदनादि । सेवमानः सन्। हिसाभावेऽपि प्राण्यभावेने कथंचिद्व्यापत्त्यभावेऽपि । नासौ कृतसामायिकः। कुतः प्रमादात्काये दुःप्रणिधानादिति (३) ॥३१॥ प्रतिपादितः कायदुःप्रणिधानमार्गः सांप्रतं स्मृत्यकरणमधिकृत्याह
न सरइ पमायजुत्तो जो सामइयं कया उ कायव्वं ।
कयमकयं वा तस्स उ कयं पि विफलं तयं नेयं ॥३१६॥ न स्मरति प्रमादयुक्तः सन् यः सामायिकं कदा तु कर्तव्यं कोऽस्य काल इति, कृतमकृतं वा न स्मरति । तस्येत्थंभूतस्य । कृतमपि सद् विफलं तत् ज्ञेयम्, स्मृतिमूलत्वाद्धर्मानुष्ठानस्य, तदभावे तदभावात् (४) ॥३१६॥ व्याख्यातं स्मृत्यकरणमधुनानवस्थितकरणमाह--
काऊण तक्खणं चिय पारेइ करेइ वा जहिच्छाए ।
अणवठियसामइयं अणायराओ न तं सुद्धं ॥३१७॥ कृत्वा तत्क्षणमेव करणानन्तरमेव । पारयति करोति वा यदृच्छया यथाकथंचिदेवमनवस्थितं सामायिकमनादरादबहुमानान्नैतच्छुद्धं भवति न निरवद्य मिति ॥३१७॥
उक्तं सातिचारं प्रथमं शिक्षापदमधुना द्वितीयमाह
जो श्रावक सामायिकके योग्य शुद्धि भूमिको आंखोंसे न देखकर और कोमल वस्त्र आदिसे उसका परिमार्जन न करके स्थान आदिका सेवन करता है-कायोत्सर्ग या पदमासनादिसे स्थित होता है वह प्रमादके वशीभूत होनेसे जीवहिंसाके न होनेपर वस्तुतः सामायिक करनेवाला नहीं होता-उसकी वह सामायिक वचनदुष्प्रणिधान नामक तोसरे अतिचारसे दूषित होती है ॥३१५।।
अब स्मृति-अकरणतासे सामायिककी निष्फलताको दिखलाते हैं
जो श्रावक 'सामायिकको कब करना चाहिए, अथवा सामायिक मैं कर चुका हूँ या अभी नहीं की है' इसका प्रमादसे युक्त होकर स्मरण नहीं करता है उसके द्वारा की गयी भो उस सामायिकको निष्फल जानना चाहिए। उपर्युक्त स्मृतिके अभावमें उसकी सामायिक स्मृति-अकरणता नामक चौथे अति वारसे मलिन होती है ।।३१६।।
अब अनवस्थितकरणसे सामायिक शुद्ध नहीं रहती, यह सूचित करते हैं
जो श्रावक सामायिकको करके तत्क्षण ही उसे समाप्त कर देता है अथवा यदृच्छासेमनमाने ढंगसे अनादरपूर्वक करता है उसकी वह अनवस्थित सामायिक अनादरके कारणसे शुद्ध नहीं रहती है। अभिप्राय यह है कि श्रावकको प्रमादके वश न होकर सामायिकको आदरपूर्वक करना चाहिए, तभी उसको सामायिक सफल कही जावेगी, अन्यथा वह अनवस्थितकरण नामक पांचवें अतिचारसे दूषित होनेवाली है ।।३१७॥
इस प्रकार प्रथम शिक्षापदभूत सामायिकका निरूपण करके अब क्रमप्राप्त दूसरे शिक्षापदव्रतका स्वरूप कहा जाता है१. अ हिंसासावे प्राण्यभावेन । २. अ स्मृत्यंतरद्धानमाह । ३. अ तस्स्येवंभूतस्य । ४. अ 'तदभावात्' नास्ति । ५. अमनादराबहु । ६. 'भवति' नास्ति ।