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________________ -३१२] प्रथमशिक्षापदेऽतिचारनिरूपणम १८७ अतिक्रमो भेदक इति एतदाह इक्कस्सइक्कमे खलु वयस्स सव्वाणइक्कमो जइणो। इयरस्स उ तस्सेव य पाठंतरमो हवा किंच ॥३११॥ एकस्यातिक्रमे. केनचित्प्रकारेण व्रतस्य । सर्वेषामतिक्रमो यतेस्तथाविधैकपरिणामत्वात् । इतरस्य तु श्रावकस्य । तस्यैवाधिकृतस्याशुव्रतस्य, न शेषाणाम्, विचित्रविरतिपरिणामात् । पाठान्तरमेवाथवा द्वारगाथायाम् । तच्चेदं कि च "सव्वं ति भाणिऊणं" 'इत्यादिग्रन्थान्तरापेक्षमन्यत्रेति ॥३१॥ उक्तमानुषङ्गिकम्, प्रकृतं प्रस्तुमः । इदमपि च शिक्षापदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति तानाह मण-बयण-कायदुप्पणिहाणं सामाइयम्मि वज्जिज्जा । सइअकरणयं अणट्ठियस्स तह करणयं चेव ॥३१२॥ मनोवाक्कायदुःप्रणिधानं मनोदुष्टचिन्तनादि। सामायिके कृते सति वर्जयेत्, स्मृत्यकरगतां अनवस्थितस्य तथा करणं चैव वर्जयेत् । तत्र स्मृत्यकरणं नाम सामायिकविषया या स्मृतिस्तस्या अनासेवनमिति : एतदुक्तं भवति प्रबलप्रमादान्नैव स्मरत्यस्यां वेलायां सामायिक कर्तव्यम्, कृतं न कृतमिति वा । स्मृतिमूलं च मोक्षसाधनानुष्ठानमिति । सामायिकस्यानवस्थितस्य करणं अनवस्थितमल्पकालं करणानन्तरमेव त्यजति यथाकञ्चिद्वानवस्थितं करोतीति ॥३१२॥ स्वीकार करता है किन्तु पालन उसका वह सदा काल करता है। इसके विपरीत श्रावक उसे अनेक बार स्वीकार करता है और पालन उसका वह सदा नहीं करता है। इस प्रकार प्रतिपत्ति (व्रतको स्वीकृति ) की अपेक्षा भो उन दोनोंमें भेद है ॥३१०|| अब अतिक्रमकी अपेक्षा भी उन दोनोंमें भेद प्रकट किया जाता है यतिके किसी एक व्रतका अतिक्रम ( खण्डन ) होनेपर सब हो व्रतोंका अतिक्रम होता है, क्योंकि वह उस प्रकारके एक ही परिणामसे सहित होता है। पर श्रावकके जिस अणुव्रतका अतिक्रम होता है उसीका वह अतिक्रम होता है, शेष व्रतांका अतिक्रम उसके नहीं होता, क्योंकि विरतिका परिणाम उसके विचित्र हुआ करता है। अथवा 'द्वारगाथा ( २९५ ) में 'पंच' के स्थानमें 'कि च' पाठान्तर है, तदनुसार अर्थ सहित ग्रहण करना चाहिए ॥३११।। इस सामायिकके प्रसंगसे कुछ आनुषंगिक विवेवन करके उसके भो निरतिचार परिपालनके लिए अतिचारोंका निर्देश किया ज मनका दुष्प्रणिधान, वचनका दुष्प्रणिधान, कायका दुष्प्रणिधान, स्मृतिको अकरणता और अनवस्थित सामायिकका करना; ये पांच उक्त सामायिकको दूषित करनेवाले उसके अतिवार हैं । उनका परित्याग करना चाहिए ॥३१२।। १. मुद्रितप्रतौ पादटिप्पणके इयं गाथा उद्धृता दृश्यते-सव्वं ति भाणिऊणं विरई खल जस्त सम्विया नत्थि । सो सम्वविरइवाई चुक्कइ देसं च सव्वं च ॥ २. अ अतोऽग्रे प्रकृतगाथाया उत्थानिकागत '०षङ्गिकं प्रकृतं प्रस्तुमः' इत्यत आरभ्य गाथान्तर्गत 'सइअकरणयं' पर्यन्तः संदर्भः पुनरपि लिखितोऽस्ति, तदन च 'तत्र स्मृत्यकरणं नाम' इत्यादि प्रकृतगाथाटीकाभागो लिखितोऽस्ति । ३. अस्थितकल्पकालं ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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